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अध्याय १३ : २६५
को उपलब्ध हो गए। पहले और पीछे एक समान भावधारा में विहरण करते हुए वे सदा-सदा के लिए संसार से मुक्त हो गए।
सम्यक् स्यादथवाऽसम्यक, सम्यक श्रद्धावतो भवेत् । सम्यक् चापि न वा सम्यक्, श्रद्धाहीनस्य जायते ॥१८॥
१८. कोई विचार सम्यक् हो या असम्यक्, श्रद्धावान् पुरुष में वह सम्यक् रूप से परिणत होता है और अश्रद्धावान् में सम्यक् विचार भी असम्यक् रूप से परिणत होता है ।
विचार अपने आप में न सम्यक् है, न असम्यक् । ग्राहक की बुद्धि के अनुसार वे ढल जाते हैं। शब्दों को जिस रूप में हम ओढ़ लेते हैं उसी रूप में वे दिखाई देने लगते हैं। एक आस्थावान् व्यक्ति के लिए असम्यक् विचार भी सम्यक् रूप में परिणत हो जाते हैं और अनास्थावान् के लिए सम्यक् विचार भी असम्यक् रूप में। राग-द्वेष और स्वार्थवश सम्यक् विचारों को असम्यक् का रूप देने वाले व्यवित कम नहीं हैं, कम हैं प्रतिकूल को अनुकूल में बदलने वाले। भगवान् महावीर के लिए संगम-कृत अनुकूल और प्रतिकूल कष्ट भी कर्म-निर्ज रण के लिए बन गए । अनार्य मनुष्यों की त्रासना से वे उद्विग्न नहीं बने।
आचार्य भिक्षु से किसी ने कहा--तुम्हारा मुंह देखा है इसलिए मुझे नरक मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने पूछा-तुम्हारा मुंह देखने से क्या मिलता है ? वह बोला-स्वर्ग। आचार्य भिक्षु ने कहा-मेरी यह मान्यता नहीं है लेकिन तुम्हारे कहने से मैं स्वर्ग में जाऊंगा और तुम ! वह खिसियाना मुंह बनाकर चलता बना।
अमेरिका के छह राष्ट्रपतियों के सलाहकार बनार्ट वरूच की वाणी अध्यात्मनिष्ठा की एक गहरी छाप छोड़ती है। किसी ने उनसे पूछा-'क्या आप अपने शत्रुओं के आक्षेपों से दुःखी होते हैं ?' । ___उन्होंने कहा—'कोई व्यक्ति मुझे न तो दुःखी कर सकता है और न नीचा दिखा सकता है। मैं उसे ऐसा कभी करने नहीं दूंगा। लाठियां तथा पत्थर मेरी पीठ को तोड़ सकते हैं, पर शब्द मुझे चोट नहीं पहुंचा सकते।'
ऊध्वं स्रोतोऽप्यधः स्रोतः, तिर्यक स्रोतो हि विद्यते । आसक्तिविद्यते यत्र, बन्धनं तत्र विद्यते ॥१६॥
१६. ऊपर स्रोत है, नीचे स्रोत है और मध्य में भी स्रोत है। जहां आसक्ति (स्रोत) है-वहां बन्धन है ।
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