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३०४ : सम्बोधि
गौतम ने कहा- मुने ! एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इंद्रियां शत्रु हैं। मैं उन्हें जीतकर विहरण करता हूं ।
केशी ने पूछा- भंते! पाशबन्धन क्या है ?
गौतम ने कहा – मुने ! प्रगाढ़ राग, प्रगाढ़ द्वेष और स्नेह - ये पाश हैं, बन्धन हैं । इनसे जीव कर्म-बद्ध होता है । ये संसार के मूल हैं ।
केशी ने पूछा- भंते! हृदय के भीतर जो उत्पन्न लता है, जिसके विषतुल्य फल लगते हैं, उसे आपने कैसे उखाड़ा ? वह लता क्या है ?
गौतम ने कहा- मुने ! भव तृष्णा को लता कहा गया है । वह भयंकर है । उसमें भयंकर फलों का परिपाक होता है । मैंने उसे सर्वथा काटकर उखाड़ फेंका है । मैं विष- फल के खाने से मुक्त हूं ।
केशी ने पूछा- भंते ! अग्नि किसे कहते हैं ?
गौतम ने कहा- मुने! क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार अग्नियां हैं । सदा प्रज्वलित रहती हैं । श्रुत, शील और तप - यह जल है । श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर, निस्तेज बनी हुई ये अग्नियां मुझे नहीं जलातीं ।
येनात्मा साधितस्तेन, विश्वमेतत् प्रसाधितम् । येनात्मा नाशितस्तेन, सर्वमेव विनाशितम् ॥३७॥
३७. जिसने आत्मा को साध लिया है उसने विश्व को साध लिया । जिसने आत्मा को गँवा दिया उसने सब कुछ गँवा दिया |
गच्छेद् दृष्टेषु निर्वेददृष्टेषु मतिं सृजेत् । दृष्टादृष्टविभागेन, नैकान्तं स्थापयेन्मतिम् ॥ ३८ ॥
३८. आत्मदर्शी साधक दृष्ट वस्तु से विरक्त बने और अदृष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए बुद्धि लगाए । दृष्ट के प्रति आस्था और अदृष्ट के प्रति अनास्था रखने वाला व्यक्ति एकान्तदृष्टि वाला होता है | वह अपनी बुद्धि का आग्रहपूर्ण प्रयोग करता है, किन्तु साधक को ऐसा नहीं करना चाहिए। उसे दृष्ट के प्रति अनास्था और अदृष्ट के प्रति आस्था भी रखनी चाहिए ।
साध्य दृष्ट नहीं, अदृष्ट है । दृष्ट इन्द्रियां हैं और उनके विषय । जो व्यक्ति इनमें आकृष्ट होता है; वह अदृष्ट आत्मानन्द से हाथ धो लेता है । आगम में कहा है-अमूर्त आत्मा मन और इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकती । इन्द्रिय सुख अनित्य है । आत्मिक सुख नित्य है । इसलिए भर्तहरि ने साधक को
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