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अध्याय १३ : ३०३
३५. यह भव तृष्णा रूपी लता हृदय के भीतर उत्पन्न होती है । उसे उखाड़कर जो विहार करता है वह मनुष्य सन्मार्ग से च्युत नहीं होता ।
नष्ट नहीं होता
कषाया अग्नयः प्रोक्ताः, श्रुत-शील तपो जलम् 1 एतद्धारा हता यस्य स जनो नैव नश्यति ॥ ३६ ॥
३६. कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील, और तपयह जल है । जिसने इस जलधारा को कषायाग्नि को आहत कर डाला – बुझा डाला, वह मनुष्य नष्ट नहीं होता - सन्मार्ग से च्युत नहीं होता ।
इन श्लोकों में कुमार श्रमण केशी और गणधर गौतम के प्रश्न और उत्तर हैं । कुमार श्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा के चौथे पट्टधर थे । एक बार वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती में आए और 'तिन्दुक' उद्यान में ठहरे । भगवान् महावीर के शिष्य गणधर गौतम भी संयोगवश उसी नगर में आए और 'कोष्टक' उद्यान में ठहरे। दोनों के शिष्यों ने एक-दूसरे को देखा । बाह्य वेशभूषा, व्यवहार आदि की भिन्नता के कारण उनमें ऊहापोह होने लगा। दोनों आचार्यों ने यह सुना । वे शिष्यों की शंकाओं का निराकरण करना चाहते थे, अतः एक स्थान पर मिले | आपस में संवाद हुआ। प्रश्नोत्तर चले ।
केशी ने गौतम से पूछा - भंते ! आप दुष्ट अश्व पर चढ़कर चले जा रहे हैं, क्या वह आपको उन्मार्ग में नहीं ले जाता ?
गौतम ने कहा- मैंने उसे श्रुत की लगाम से बांध रखा है । वह मेरे वश में है । वह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व है वह मन है । वह मेरे अधीन है, उस पर मेरा पूरा नियन्त्रण है । इस नियन्त्रण के द्वारा वह मेरी आज्ञा का पालन करता है ।
केशी ने पूछा – भन्ते ! लोक में कुमार्ग बहुत हैं। आप उनमें कैसे नहीं भटकते ?
गौतम ने कहा – मुने ! जो मार्ग और कुमार्ग हैं, वे सब मुझे ज्ञात हैं । जो प्रवचन के व्रती हैं, वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो वीतराग का मार्ग है, वह सन्मार्ग है, वह उत्तम मार्ग है । मैं दोनों को जानता हूं । अतः भटकने का प्रश्न ही नहीं आता ।
केशी ने पूछा- भंते! तुम्हारा शत्रु कौन है ?
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