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अध्याय ४ : ८५
१६. भाव (पदार्थ) दो प्रकार के होते हैं-तर्क गम्य और अतर्कगम्य। अतर्कगम्य भाव में तर्क का प्रयोग करने वाला बुद्धिवादी उसमें उलझ जाता है।
इन्द्रियाणां मनसश्च, भावा ये सन्ति गोचराः । तत्र तर्कः प्रयोक्त व्यस्तों नेतः प्रधावति ॥२०॥
२०. इन्द्रिय और मन के द्वारा जो पदार्थ जाने जाते हैं उन्हें समझने के लिए तर्क का प्रयोग हो सकता है, उसके आगे तर्क की गति नहीं है।
आज विज्ञान भी इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि दृश्य जगत के परे भी कुछ और है । दृश्य भी अभी तक पूरा दृश्य नहीं बना है। यदि सब कुछ दृश्य देख लिया जाता तो विज्ञान का एक कार्य सम्पन्न हो जाता, किन्तु वह भी बहुत अवशेष है और रहेगा। लेकिन दृश्य के पीछे एक अदृश्य की सत्ता को स्वीकार करना बुद्धि की ससीमता का द्योतक है । महावीर इसी ओर संकेत कर रहे हैंतर्क के परे भी एक चीज है, उसे तुम तर्क से कभी प्राप्त नहीं कर सकोगे।
दार्शनिक परमात्मा के इतना निकट नहीं होता जितना कि एक सन्त। दार्शनिक अपनी पहेलियों को अन्तिम क्षण तक सुलझा नहीं पाता । पश्चिम के इस सदी के महान् दार्शनिक 'वर्टेण्ड रसल' ने यहां तक कहा है--"अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ बल्कि नये सवाल खड़े हो गए।"
तर्क से अतयं कैसे हाथ लग सकता है ? महावीर ने कहा है-'तक्का तत्थ न बिज्जइ'-तर्क की वहां पहुंच नहीं है।।
तर्क लचीला होता है। जिसके पास बौद्धिक क्षमता अधिक होती है, वह अपने तर्क-बल से संगत को असंगत और असंगत को संगत कर सकता है। आस्तिकों और नास्तिकों के तर्क-जाल से न तो आज तक आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो पाया है और न नास्तित्व। आज भी 'आत्मा है' और 'आत्मा नहीं है'-दोनों वाद वैसे ही खड़े हैं, जैसे सहस्राब्दियों पहले खड़े थे। नेपोलियन के सामने वैज्ञानिक लापलेस ने पांच भागों में लिखी विश्व की पूरी व्यवस्था के सम्बन्ध में पुस्तक प्रस्तुत की। नेपोलियन ने देखा उसमें ईश्वर का नाम नहीं है। नेपोलियन के मंत्री ने कहा-'वह तो होना चाहिए, क्योंकि मैं मानता हूं कि ईश्वर है। लेखक ने कहा-'मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है।' नेपोलियन ने विवाद को बड़े शान्त ढंग
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