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२२८ : सम्बोधि
एक विचारक ने लिखा है— लोग धर्म के सम्बन्ध में सुनते हैं, पढ़ते हैं, लिखते हैं, भाषण करते हैं । धर्म के लिए लड़ते हैं और मरते भी हैं । किन्तु जीते नहीं । धर्म का जीवन में परिचय हो जाये तो फिर लड़ने और मरने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । धर्म का ह्रास उसके आत्मसात् नहीं होने के कारण ही हुआ है । धर्मग्रन्थ स्वयं नहीं बोलते । वे तो अनुभवी पुरुषों के स्वर हैं, चेतना जगत् उठे हुए शब्द हैं । उनका अर्थ चेतना जगत् में प्रवेश करके ही पाया जा सकता है । धर्म की व्याख्या जब चैतन्य भूमि से हटकर बौद्धिक भूमिका पर आ जाती है तब धर्म शुद्ध नहीं रहता । उसका स्वरूप और कार्य एक होते हुए भी भिन्नता परिलक्षित होती है । उसका एकमात्र कारण है - अनुभूति के स्तर पर धर्म का न होना। यहां जो धर्म-प्रवक्ता के चार लक्षण प्रस्तुत किये हैं वे यह सूचित करते हैं कि उसे कैसा होना चाहिए, जिससे धर्म की ज्योति बुझने न पाये । तथागत कौन होते हैं - इसके सम्बन्ध में कहा है - जो जैसा करता है और जैसा कहता है, वैसा करता है - वह तथागत होता है। खुद्दक निकाय में कहा है- दूसरों को उपदेश करने से पहले पंडित अपने आपको उसके अनुरूप प्रशिक्षित कर ले जिससे कि बाद में क्लेश न उठाना पड़े।' इससे यह स्पष्ट है, उपदेष्टा को केवल उपदेष्टा नहीं होना है किन्तु उस उपदेश को जीना है । धर्म-प्रवक्ता को जिन चार विशिष्ट गुणों से विभूषित होना चाहिए, हैं—
१. आत्मगुप्त - ( आत्म- रक्षित ) - आत्मा की असुरक्षा के हेतु हैं - इन्द्रियों की और मन की चंचलता । इन्द्रियां विषयों का ग्रहण करती हैं और मन को अपना संवाद पहुंचाती हैं । मन अनुरक्ति और विरक्ति, चाहिए और नहीं चाहिए की दौड़धूप में व्यग्र हो उठता है । पूर्वबद्ध संस्कारों के कारण आत्मा की ध्वनि दब जाती है और मन सक्रिय हो उठता है । यह असमाधि है, दुःख है । जिस साधक ने इन्हें ठीक समझकर, जानकर और देखकर समाधिस्थ बना लिया है, शान्त बना लिया है, जिसकी इन्द्रियां अब स्वयं के अधीन हो गई हैं, जो अपना मालिक है वह आत्मगुप्त होता है।
२. दान्त - शान्त - जो सदा उपशान्त रहता है । अशांति का हेतु है— कषाय । कषाय संसार है और अकषाय मुक्ति । कषाय हो और अशांति न हो यह संभव नहीं है | साधना कषाय की शांति के लिए है । 'कषाय मुक्ति : किल मुक्तिरेव' कषाय की शांति को मुक्ति कहा है । वक्ता के लिए शांत होना अनिवार्य है । राग-द्वेषयुक्त वक्ता के द्वारा शुद्ध धर्म का निरुपण संभव नहीं है ।
३. छिन्नस्रोत का सीधा अर्थ है - जिसने कर्म आने के मार्गों को नष्ट कर दिया है। इसका अर्थ और भी है । संसारानुगामी लोग व्यवहार से जो ऊपर उठ जाता है वह छिन्नस्रोत हो जाता है । एक यथार्थ द्रष्टा को लोक व्यवहार से मुक्त होना आवश्यक है। धर्म के सम्यक् प्रतिपादन में लोक व्यवहार भी एक बाधा है । साधक
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