Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 502
________________ परिशिष्ट-१ : ४३६ ध्यान का फल-आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है-साधकों के लिए वही योग्य है, वही करणीय है और वही चिन्तनीय है, जिससे आत्मा के साथ संयुक्त विजातीय तत्त्व दूर हो, आत्मा स्वरूप में प्रतिष्ठित हो।' ध्यान का मुख्य फल स्वभावोपलब्धि है। जिस ध्यान से स्वभाव -अस्तित्व का जागरण नहीं होता, वस्तुतः वह ध्यान नहीं है। तिलोयप न्नति में कहा है'जिस साधक को ध्यान में यदि ज्ञानपूर्वक अपनी आत्मा का अ वभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है, उसे प्रमाद, मोह, या मूर्छा कहना चाहिए।' - शुद्ध चैतन्य की उपलब्धि ही ध्यान का फल है। साधक को इसकी संप्राप्ति के पूर्व कहीं रुकना नहीं चाहिए। मंजिल तक पहुंचने में अनेक विक्षेप समुपस्थित होते हैं। विभूतियां, सिद्धियां उनमें प्रमुख है। सिद्धियों की चाह वासना है, मोह है और साधक उनसे अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। कबीर ने कहा है 'अष्ट सिद्धि नव निद्ध लो, सबहि मोह की खान । त्याग मोह की वासना, कहे कबीर सुजान ।। जैन साधक लिचि से पूछा-ध्यान का सार क्या है ? लिचि ने कहा--विनम्रता विनम्रता-'मैं-अहं' का मिट जाना । साध्य-प्राप्ति में अन्तिम बाधा यही 'मैं' है । लाओत्से ने कहा---'जो स्वयं विनम्र हो जायेगा वह बच जायेगा, जो झुकता है वह सीधा हो जायेगा और जो स्वयं को खाली करता है, वह मर जायेगा । एक व्यक्ति लाओत्से के पास आया और बोला-'मैं मोक्ष चाहता हूं। कृपया मार्गदर्शन करें।' लाओत्से हंसने लगे, बोले-'मोक्ष' चाहता है ? साधक ने कहा-हां । लाओत्से ने कहा- पहले यह समझ कर आ कि मैं हूं। मैं हो तो मुक्त करने की बात करें। वह चला गया। मैं को खोजने लगा। वर्षों बाद वापिस लौटा । चरणों में सिर रख दिया। लाओत्से ने पूछा...बोलो, क्या बात है ? मोक्ष चाहते हो? उसने कहा 'नहीं।' जब मैं ही नहीं बचा तो मोक्ष किसका ? मैं खोजने गया 'मैं' को किन्तु मैं स्वयं खो गया। अहं की मुक्ति ही वास्तव में मुक्ति है । जैन आचार्यों ने कहा है-'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव-कषाय की मुक्ति ही मुक्ति है। आचार्य उमास्वामी ने लिखा है-मद-अहंकार और मदन-काम पर जिनका प्रभुत्व स्थापित हो चुका है, मानसिक, वाचिक और कायिक विकार शांत हो चुके हैं और पर-पदार्थों से जो वितृष्ण हो चुके हैं, ऐसे परम साधकों के लिए मोक्ष यहीं है। विजातीय तत्त्व से विमुख होकर स्वभाव में प्रतिष्ठित होना ही ध्यान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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