________________
४२६ : सम्बोधि
१. चन्द्रनाड़ी द्वारा रेचन भावना - रागरूप लाल रंग की वायु का रेचन हो रहा है।
२. सूर्यनाड़ी द्वारा रेचन भावना - द्वेषरूप काले रंग की वायु का रेचन हो रहा है।
३. राग-द्वेष से मुक्त होकर चन्द्रनाड़ी द्वारा पूरक भावना-श्वेत वायु नाभि में सम्यक् स्थापित हो रहा है ।
४. होठ बन्द ।
५. दांत ऊपर-नीचे अस्पृष्ट ।
- सतोगुणरूप
६. नाशाय पर दृष्टि ।
७. अन्तर्जल्परूप या अनाहतनादरूप स्मरण करना ।
देवभद्र सूरी ने 'कथा रत्नकोष' में मंत्र-स्मरण की विधि का निर्देश इस प्रकार दिया है
(१) आंखें निस्पन्द, नासाग्र दृष्टि
(२) केवल कुंभक
(३) इन्द्रिय-प्रत्याहार
(४) अनाहत नाद में लग्न-स्मरण करना ।
(५) प्रत्येक अक्षर को चन्द्रकला से युक्त कर उसमें से झरते अमृत प्रवाह का चिन्तन करना ।
(६) उस अमृत प्रवाह से तीनों लोकों का दुःख दावानल शांत हो गया है । (७) मंत्राक्षरों को लाखों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी चिन्तन ।
(८) मंत्र के प्रभाव से विघ्नकारक भूतादि गण दूर हो गए हैं— चिन्तन करें । मंत्र-शास्त्रों में तीन प्रकार के करण का उल्लेख है, जो जप की सफलता में सहयोगी है । दिव्यकरण उसमें महत्त्वपूर्ण है । [१] कुंभकरण ( २ ) दिव्यकरण (३) उर्ध्व रेचन करण | साधक योग व्यापार (क्रिया) और करण से युक्त न हो तो मन्त्रोच्चार का कोई मूल्य नहीं । करण में रेचन आदि करणों का समावेश होता है ।
पूरक कर कुंभक करना । मूलबन्ध करना । मूलबन्ध से समस्त द्वारों का निरोध हो जाता है । उसके बाद ऐसा सोचना कि सुषुम्ना नाड़ी ऊपर बहती है । कुंभक द्वारा अवरुद्ध जो नाड़ियां और ग्रंथियां पहले अधोमुख थीं वे ऊर्ध्वमुख होकर विकसित होने लगती हैं ।
कुम्भक के बाद दिव्य-करण करना
(१) दिव्य - जिह्वा को तालु में लगाएं, किन्तु एकदम संयोजित न करेंजीभ और तालु के मध्य कुछ अन्तर रहे ।
(२) मुंह को थोड़ा सा खुला रखें । होठ दोनों एकदम न सटे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org