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३६४ : सम्बोधि
सामने आते ही व्यक्ति का ध्यान सीधा तपस्या - भूखे रहना, उपवास की ओर चला जाता है । महावीर की प्रतिमा भी जनता के सामने केवल दीर्घतपस्वी और कष्ट - सहिष्णु के रूप में खड़ी की। इस चरित्र चित्रण के साथ-साथ अधिक-से अधिक तप, उपवास आदि करने पर बल दिया जाने लगा । तपस्वियों की महत्ता और उत्साह संवर्द्धन के लिए विविध समारोह तथा स्तुति-गीत प्रदर्शित किये जाने लगे, जिससे सहजतया सामान्य व्यक्तियों का मन लालायित होने लगा । कुछ समाज में धारणायें भी प्रचलित हो गईं कि अमुक-अमुक तप होने ही चाहिए। कोई न करे या किसी से न हो तो वह अपने आप में हीनता का अनुभव करने लगता है। दूसरे लोग भी जैसे-तैसे प्रेरित करते रहते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं 'तप' तो जीवित रहा किन्तु उसका मूल हार्द गौण हो गया। एक और भी बात है कि तप अच्छा है, प्रीतिकर है तो किसी विशेष समय में कर उसकी इति श्री क्यों कर दी जाती है ? मोसमी फूलों की तरह क्र्या उसका मौसम होता है ? महावीर को उसमें आनन्द था तो वह सतत चल रहा था। उन्होंने तप के अनुष्ठान के लिए कोई दिन, महीना निर्धारित नहीं किया था । उसकी उन्हें जरूरत थी, रस था और ध्येय में सहयोगी था, इसलिए सदा समुचित प्रयोग करते रहे । किन्तु बाद में कुछ तिथियां और महीने निश्चित से हो गए। बस, वह समय आता है, और दौड़धूप शुरू हो जाती है। बरसात की नदियों की तरह फिर वह शान्त हो जाता है । तप वैसा नहीं है । वह तो गंगा की पवित्रतम धारा की भांति है जो सागर में मिल कर ही आश्वस्त होती है ।
ज्ञान और दर्शन चैतन्य का स्वभाव है । उनके लिए स्वतन्त्र कोई विशेष आयास नहीं करना होता है । वे चरित्र तप की साधना के परिणाम मात्र हैं । साधना जो है, वह है, तपोयोग की । जो कुछ सार-सत्य होता है, वह इससे ही होता है । तप का महत्व इसलिए है कि वह समस्त आवरणों को जलाकर चैतन्य को अपने स्वच्छ रूप में प्रस्तुत करता है । आवृत ज्ञान और दर्शन को अनावृत भी यही करता है । इस दृष्टि से तप के सम्बन्ध में बहुत सजग, विवेकवान और विज्ञ होना चाहिए । अज्ञान तप कष्टकर होता है, साधना में सहायक नहीं है । महावीर ने कहा है
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'मासे मासे तु जो बाले, कुसग्गेण भुंजई | सो सुक्खाय धम्मस्स, कलं अग्घई सोलसिं ॥ अज्ञानी व्यक्ति महीने - महीने का उपवास कर कुश के अग्र भाग पर टिके इतना सा भोजन करके भी शुद्ध धर्म की सोलवीं कला का भी स्पर्श नहीं करता । बुद्ध ने कहा है " नासमझ तप भी करते हैं तो भी नरक में जाते हैं। जिन दो अतियों से बचने की बात कही है उनमें से एक है शरीर को व्यर्थ सताना । श्रोण नाम का राजकुमार भिक्षु भोग से तप की दूसरी अति पर जब उतर गया तब कुछ
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