________________
१७२ : सम्बोधि
भगवान् प्राह
ज्ञानस्यावरणेन स्यादज्ञानं तत्प्रभावतः । अज्ञानी नैव जानाति, वितथं वा तथातथम् ॥२॥
२. भगवान् ने कहा-ज्ञान पर आवरण आने से अज्ञान होता है। उसके प्रभाव से अज्ञानी जीव सत्य और झूठ को नहीं जान पाता।
नैतद् विकुरुते लोकान्, नापि संस्कुरुते क्वचित् । केवलं सहजालोकमावृणोति निजात्मनः ॥३॥ ३. यह आवरण जीवों को न विकृत बनाता है और न संस्कृत । यह केवल अपनी आत्मा के सहज प्रकाश को ढंकता है ।
ज्ञानस्यावरणं यावद्, भावशुद्धया विलीयते। अव्यक्तो व्यक्ततामेति, प्रकाशस्तावदात्मनः ॥४॥
४. भावों की विशुद्धि के द्वारा जितना ज्ञान का आवरण विलीन होता है, उतना ही आत्मा का अव्यक्त प्रकाश व्यक्त होता
है।
पदार्थास्तेन भासन्ते, स्फुटं देहभृताममी।
ज्ञानमात्रमिदं नाम, विशेषस्याऽविवक्षया ॥५॥ ५. आत्मा के उस प्रकाश से पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि उसके विभाग न किये जायँ तो उस प्रकाश को सिर्फ ज्ञान ही कहा जा सकता है।
ज्ञान के स्वरूप को समग्र दृष्टिकोण से देखें तो वह एक है। उसके विभाग नहीं होते। जहां विभाग किये जाते हैं वहां उसका प्रकाश कुछ सीमाओं में बंध जाता है। बिजली का प्रकाश बल्ब की ही शक्ति पर निर्भर करता है। वैसे ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org