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अध्याय १५ : ३५६
'जैन आगम में दो शब्द व्यवहृत होते हैं-संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त। चेतना दो प्रकार की है-संज्ञोपयुक्त चेतना और नो-संज्ञोपपुक्त चेतना। जिसमें संज्ञा होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना है और जिसकी संज्ञा समाप्त हो जाती है वह नो-संज्ञोपयुक्त चेतना है। वीतराग नो-संज्ञोपयुक्त होते हैं। उनके उपयोग में, चेतना में कोई संज्ञा नहीं होती। वह संज्ञातीत चेतना होती है। 'संज्ञातीत' चेतना का अर्थ है-विशुद्ध चेतना, केवल चेतना । जहां चेतना के साथ संज्ञा का मिश्रण होता है, जो चेतना संज्ञा से प्रभावित होती है, जो चेतना संवेदनात्मक होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना कहलाती है।
संज्ञाएं दस हैं१. आहार संज्ञा
६. मान संज्ञा २. भय संज्ञा
७. माया संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा
८. लोभ संज्ञा ४. परिग्रह संज्ञा
६. लोक संज्ञा ५. क्रोध संज्ञा
१०. ओघ संज्ञा हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है---चेतना में से इन सारी संज्ञाओं को निकाल देना अर्थात् वीतराग बन जाना। यही उद्देश्य है हमारी अध्यात्म साधना का। चेतना के साथ जो संवेदन जुड़ा हुआ है, संज्ञा जुड़ी हुई है, उसको समाप्त कर देना, यह हमारा स्पष्ट लक्ष्य है। इसमें न कोई चमत्कारिक शक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य है और न कोई और । केवल अपनी चेतना का संशोधन, परिमार्जन या परिष्कार करना है। जब व्यक्ति की चेतना परिमार्जित और परिष्कृत होती है तब विकास प्रारम्भ हो जाता है। क्या हम आहार नहीं करें? क्या आहार संज्ञा को समाप्त करने का यही अर्थ है ? नहीं। शरीर के रहते हुए ऐसा सम्भव नहीं है कि हम आहार न करें। आहार किए बिना साधना नहीं हो सकती । साधना के लिए यदि शरीर जरूरी है तो शरीर के लिए आहार जरूरी है । आहार को नहीं छोड़ा जा सकता किन्तु आहार के प्रति होने वाली आशक्ति या वासना को छोड़ा जा सकता है।
कारुण्येन भयेनापि, संग्रहेणानुकम्पया। लज्जया चापि गर्वेण, अधर्मस्य च पोषकम् ॥५४॥ धर्मस्य पोषकं चापि, कृतमितिधिया भवेत् । करिष्यतीति बुद्धयापि, दानं दशविधं भवेत्॥५५॥
१. मन के जीते जीत, पृष्ठ १३८, १३६ ।
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