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आमुख
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अहिंसा सत्कर्म है - उसकी उपासना वे ही कर सकते हैं जो पुनर्जन्म को मानते हैं, जिनका विश्वास है कि सत्कर्म का सत्फल होता है और असत्कर्म का असत् फल । कुछ व्यक्ति सत्कर्म में विश्वास करते हैं और अल्प मात्रा में उसका आचरण भी करते हैं; कुछ विश्वास करते हैं और पूर्ण आचरण भी करते हैं, और कुछ विश्वास नहीं करते और आचरण भी नहीं करते। इसके आधार पर व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं :
पूर्ण उपासना करनेवाला मुनि वर्ग - पूर्ण धार्मिक |
अपूर्ण उपासना करनेवाला सद् गृहस्थ - अपूर्ण धार्मिक ।
उपासना नहीं करनेवाला - अधार्मिक |
इस अध्याय में तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्मफल की मीमांसा व्यवस्थित ढंग से की गई है। जब तक व्यक्ति अपने कर्म को समीचीन नहीं बनाता तब तक उसे वार्तमानिक सुख प्राप्त हो नहीं सकता । जिसे वर्तमान में सुख नहीं है उसे भविष्य में सुख कैसे हो सकता है। वह 'इतो भ्रष्टरस्ततो भ्रष्ट : ' - यहां से भ्रष्ट है और आगे से भी । इसलिए कर्म और उसके फल का अवबोध कर अपने कर्म को सम्यक् करना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म होता है ।
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