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अध्याय ५ : ६७
भगवान् प्राह
अभयं याति संसिद्धि, अहिंसा तत्र सिद्धयति । अहिंसकोऽपि भीतोऽपि, नैतद् भूतं भविष्यति ॥११॥
११. भगवान् ने कहा-जहां अभय सिद्ध होता है वहां अहिंसा सिद्ध हो जाती है । एक व्यक्ति अहिंसक भी हो और भयभीत भी हो ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा।
यथा सहानवस्थानमालोकतमसोस्तथा । अहिंसाया भयस्यापि, न सहावस्थितिर्भवेत् ॥१२॥
१२. जैसे प्रकाश और अन्धकार एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही अहिंसा और भय एक साथ नहीं रह सकते।
यो नाप्नोति भयं मृत्योर्न बिभेति तथा रुजः । जरसोनपिवादेभ्यः, स एव स्यादहिंसकः॥१३॥
१३. जो व्यक्ति मृत्यु, रोग, बुढ़ापा अपवादों से नहीं डरता, वही वास्तव में अहिंसक है ।
यस्यात्मनि परा प्रीतिः, यः सत्यं तत्र पश्यति । अस्तित्वं शाश्वतं जानन्, अभयं लभते ध्रुवम् ॥१४॥
१४. आत्मा में जिसकी परम प्रीति है, जो आत्मा में ही सत्य को देखता है, जो आत्मा को शाश्वत मानता है, वह निश्चित हो अभय हो जाता है।
यः पश्यत्यात्मनात्मानं, सर्वात्मसदृशं निजम्।
भिन्नं सदप्यभिन्नं च, तस्याहिंसा प्रसिद्धयति ॥१५॥ १५. जो आत्मा से आत्मा को देखता है, सभी आत्माओं को देहदृष्टि
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