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५६ : सम्बधि
कः कर्ता सुख-दुःखानां, को भोक्ता कश्च घातकः ।
सुखदो दुःखदः कोस्ति, स्याद्वादोश ! प्रणधि माम् ॥१२॥ ११-१२. मेघ बोला-सब जीवों को सुख और आयुष्य (जीवन) प्रिय लगता है । वे दुःख नहीं चाहते, फिर भी वह मिलता है और सुख चाहते हैं, फिर भी वह नहीं मिलता। सुख-दुःख का करनेवाला कौन है ? और कौन इन्हें भोगता है ? कौन है इनका नाश करनेवाला? और सुख-दु:ख देनेवाला कौन है ?
मेघ ने यहां चार प्रश्न प्रस्तुत किए हैं: १. सुख-दुःख का कर्ता कौन है ? २. सुख-दुःख का भोक्ता कौन है ? ३. सुख-दुःख का नाश करने वाला कौन है ? ४. सुख-दुःख देने वाला कौन है ?
ये चार प्रश्न प्रायः सभी दार्शनिकों के सामने आते रहे हैं। सभी दर्शन इन्हीं की परिक्रमा लिए चलते हैं। ऋषि-मुनियों ने इन्हीं प्रश्नों को समाहित करने के लिए साधना की और अपने दिव्य ज्ञान और अनुभूति से लोक-मानस को आलोकित किया।
दार्शनिक जगत् में मूलतः दो मुख्य धाराएं रही हैं—ईश्वरवादी और आत्मवादी।
कुछ दर्शन ईश्वर को जगत् का कर्ता स्वीकार कर सारी व्यवस्था को ईश्वराधीन मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर ही सुख-दुःख का कर्ता और हर्ता है । सुखदुःख का भोग व्यक्ति करता है। वह भी ईश्वर की इच्छा से, अन्यथा नहीं। इस ईश्वरवादी मान्यता ने व्यक्ति के स्वतन्त्र पुरुषार्थ को कुछ भी महत्त्व नहीं दिया। व्यक्ति एक सर्वशक्तिमान् प्रभु के हाथ का खिलौना मात्र रह गया। ___ आत्मवादी परंपरा ने ईश्वर को सर्वशक्ति-सम्पन्न मानकर भी उसे केवल द्रष्टा मात्र स्वीकार किया है। प्रवत्ति का हेतू कर्म है। ईश्वर निष्कर्म होते हैं। कारण के अभाव में कार्य की निष्पत्ति नहीं होती। आत्मा सकर्मा होता है। सभी प्रवृत्तियों का कर्ता वही है।
इस परंपरा ने चारों प्रश्नों का उत्तर इस भाषा में दिया१. सुख-दुःख का कर्ता आत्मा है। २. सुख-दुःख का भोक्ता आत्मा है। ३. सुख-दुःख का नाश करनेवाला आत्मा है।
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