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उद्बोधन
पृथक् छन्दाः प्रजा अत्र, पृथग्वादं क्रियाक्रियम् । क्रियां श्रद्दधते केचिदक्रियामपि केचन ॥१॥
१. संसार में विभिन्न रुचि वाले लोग हैं। उनमें पृथक्-पृथक वाद, जैसे-क्रियावाद-आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद आदि प्रचलित हैं। कई व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि में श्रद्धा रखते हैं और कई व्यक्ति नहीं रखते।
संसार विविध वादों से भरा हैं । पुराने वाद नया रूप लेते हैं और नये पुराने बनते हैं । काल का यह क्रम अजस्र प्रवाहित रहता है। पुरानी मान्यता के वाद थे-क्रियावाद, अक्रियावाद, ज्ञानवाद और विनयवाद । इनकी अवान्तर शाखाएं सैकड़ों रूपों में प्रसारित हुई थीं। आज भी अनेक वाद प्रचलित हैं। __ वाद बौद्धिक व्यायाम है। तथ्यों की सचाई का परीक्षण तर्क से किया जाता है, जबकि तर्क स्वयं संदिग्ध होता है। वह सत्य के द्वार तक पहुंचने का सीधा माध्यम नहीं है । सीधा माध्यम है, तर्क-शून्य-निर्विकल्प होना। वाक्-प्रपंच केवल पांडित्य मात्र है। शंकराचार्य का कथन है
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् ।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ॥ वचन की विदग्धता, शब्द-सौन्दर्य और शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता-ये विद्वानों की विद्वत्ता के भोग के लिए हैं, मोक्ष के लिए नहीं।
हिसासूतानि दुःखानि, भयवरकराणि च । पश्यव्याकरणे शंकां, पश्यन्त्यपश्यदर्शनाः॥२॥
२. दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं और उनसे भय और वैर बढ़ता
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