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अध्याय ११ : २१५
माना। यहीं से जैन साधना-पद्धति का प्रारम्भ हुआ। मगवान् महावीर ने कहा
जम्म दुक्खं जरादुक्खं रोगाणि मरणाणि य।
अहो दुक्खो ह संसारो जत्थ कीसंति पाणिणो । ---जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। सारा संसार दुःखमय है जहां प्रत्येक प्राणी दुःख पा रहा है ।
इस दुःखवादी दृष्टिकोण ने जैन साधक को पग-पग पर सचेष्ट रहने की प्रेरणा दी।
जैन दर्शन के चार आधार-बिन्दु हैं : १. दुःख है। २. दुःख का कारण है। ३. मोक्ष है। ४. मोक्ष का कारण है। इन चार सत्यों के आधार पर सारा दर्शन खड़ा हुआ है।
साधक साधना-जीवन में प्रवेश करते ही पूछता है--ऐसा कौन-सा कार्य है जो दुःख-मुक्त कर सकता है ? दुःख से मुक्त होने की भावना ज्यों-ज्यों तीव्र होती है साधक का जीवन उतना ही प्रकाशमय होता जाता है।
साधक दुःख के कारणों और उनकी मुक्ति के मार्ग की खोज में जुट पड़ता है। तब उसे सत्य का बोध होता है और वह अपने लक्ष्य का निर्णय कर लेता है। यहां से सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अन्त हो, का प्रारम्भ होता है। यही दर्शन का आदि-बिन्दु है। जैन दर्शन यहां से प्रारम्भ होता है और निर्वाण प्राप्ति में कृतकार्य हो जाता है।
राजा मिलिन्द ने स्थविर नागसेन से पूछा-'प्रवज्या का क्या उद्देश्य है ?' नागसेन ने कहा-'प्रव्रज्या का उद्देश्य है-दुःख-मुक्ति और निर्वाण-प्राप्ति।' राजा ने पूछा-'क्या आपने इसीलिए प्रव्रज्या ली थी? नागसेन ने कहा-'नहीं। मैंने बौद्ध भिक्षुओं में बड़ा पांडित्य देखा। मैंने सोचा, मुझे भी सीखने को मिलेगा। सीखने के बाद मैंने जाना कि प्रव्रज्या का उद्देश्य क्या है।'
चार प्रकार के पुरुष होते हैं
कुछ व्यक्ति दुःख-क्षय के लिए प्रवजित होते हैं और वे उसी ध्येय पर चलते हैं। कुछ व्यक्ति प्रव्रज्या के उद्देश्य को बाद में समझते हैं, किन्तु तदनुरूप अभ्यास नहीं करते। कुछ जानते हैं और अभ्यास भी करते हैं। कुछ न जानते हैं और न तथानुरूप आचरण करते हैं।
एक व्यक्ति ने युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ को पूछा-'प्रव्रज्या का प्रयोजन क्या
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