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अध्याय ५ : १०६.
३०. स्वाध्याय और ध्यान से विशुद्धि स्थिर होती है और जो इन की सम्पदा से सम्पन्न है उसके अन्तःकरण में परम आत्मा प्रकाशित हो जाता है।
श्रद्धया स्थिरयाऽऽपन्नो, जयोऽपि चिरकालिकः ।
सुस्थिरां कुरुते वृत्ति, वीतरागत्वभावितः ॥३१॥ ३१. सुस्थिर श्रद्धा से कषाय, वासना आदि पर जो स्थायी विजय प्राप्त होती है वह वीतरागता की भावना से भावित होकर आत्मा की वृत्तियों को एकाग्र बनाती है ।
श्रद्धा का अर्थ है-आत्म-स्वरूप की दृढ़ निश्चिति । आत्मा प्रतिक्षण अनेक प्रवृत्तियों में प्रत्यावर्तन करती रहती है। उसका झुकाव स्व की ओर कम होता है। हम देखते हैं, वह कषाय, राग, द्वेष, मोह, ममत्व, वासना, अहं आदि की ओर अधिक प्रवृत्त रहती है। उसे बहिर्भाव में जितना आनन्द आता है, उतना स्वभाव में नहीं । स्वभाव की ओर झुकाव के लिए दृढ़ श्रद्धा की अपेक्षा रहती है इसलिए यहां श्रद्धा के लचीलेपन की ओर संकेत किया गया है। बहिर्भाव हमें आत्मोन्मुख होने नहीं देता। अगर हम जैसे-तैसे उस ओर चरण बढ़ा देते हैं तो फिर वह हमें बहिर्मुखता की ओर घसीट लाता है।
आत्म-मंदिर का प्रवेशद्वार श्रद्धा का स्थिरीकरण है। श्रद्धा जब आत्मा में केन्द्रित हो जाती है तब साधक पीछे की ओर नहीं देखता । वह आगे बढ़ता है।' कषाय आदि पर-भाव हैं । वह उनमें उपलिप्त नहीं होता । वह देखता है-मैं शुद्ध हूं, बुद्ध हूं, निर्विकल्प हूं, ज्ञानमय हूं और वीतराग हूं । इस विशुद्ध भावना से वह अपनी समस्त आत्म-प्रवृत्तियों को एकाग्र बना लेता है ।
भावनानाञ्च सातत्यं, श्रद्धां स्वात्मनि सुस्थिराम् ।
लब्ध्वा स्वं लभते योगी, स्थिरचित्तो मिताशनः ॥३२॥ ३२. चित्त को स्थिर रखने वाला और परिमित खाने वाला योगी अनित्य आदि भावनाओं की निरन्तरता और सुस्थिर श्रद्धा को प्राप्त कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
पर्यङ्कासनमासीनः, स्थिरकाय ऋजुस्थितिः । नासाने पुद्गलेऽन्यत्र, न्यस्तदृष्टिः स्वमश्नुते ॥३३॥
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