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अध्याय ८ : १६३
अशुभानां पुद्गलानां, प्रवृत्त्या शुभया क्षयः।
असंयोगः शुभानाञ्च, निवृत्त्या जायते ध्रुवम् ॥१६॥ १६. शुभ प्रवृत्ति से पूर्वअजित-बद्ध अशुभ पुद्गलों (पाप-कर्मों) का क्षय होता है और उसकी निवृत्ति से कर्म-पुद्गलों का संयोग, जो आत्मा से होता है, वह रुक जाता है ।
निवृत्तिः पूर्णतामेति, शैलेशीञ्च दशां श्रितः ।
अप्रकम्पस्तदा योगी, मुक्तो भवति पुद्गलैः ॥१७॥ १७. जब निवृत्ति पूर्णता को प्राप्त होती है तब योगी शैलेशी दशा (३।३७) को प्राप्त होकर अप्रकम्प बनता है और पुद्गलों से मुक्त हो जाता है। __पूर्ण-निवृत्त स्थिति में पुद्गलों का ग्रहण सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण से आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। अब उसके पास संसार में रहने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है। जो प्राणी प्रवृत्ति में संलग्न होते हैं उसके लिए शुभाशुभ प्रवृत्तियों का क्रम अविच्छिन्न चलता रहता है। दोनों के मूलोच्छेद के बिना आवागमन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता।
कर्म के क्षीण होने की प्रक्रिया है-सबसे पहले अविरति और दुष्प्रवृत्ति से ध्यक्ति मुक्त बने । बुद्ध की साधना-पद्धति में शील को प्रथम स्थान दिया है। योग में यम और नियम की प्रमुखता है। महावीर महाव्रत और अणुव्रत की बात कहते हैं। सबका सार-सूत्र इतना ही है कि इनके द्वारा असत् प्रवृत्ति के प्रवाह को सबसे पहले अवरुद्ध किया जाए। अशुभ से क्रिया का मुंह मोड़ कर उसे शुभ कर्मप्रवृत्ति से जोड़ा जाए। शुभ प्रवृत्ति का कार्य होगा-शुभ पुद्गलों का अर्जन और बद्ध अशुभ कर्मों का निर्जरण। जैसे कुछ औषधियां स्वास्थ्य लाभ करती हैं और बल-संवर्द्धन भी। ठीक इसी तरह शुभ प्रवृत्ति का कार्य है। शुभ प्रवृत्ति जब फलाकांक्षा और वासना से शून्य होती है तब क्रमशः उससे निवृत्ति का पथ प्रशस्त होता है । अन्ततोगत्वा पूर्ण निवृत्ति की स्थिति साधक के जीवन में घटित होती है।
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