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३० : सम्बोधि
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स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रञ्च पञ्चमम् । एषां प्रवर्तक
प्राहुः,
१७-१८. स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द - ये पांच विषय हैं और इनको ग्रहण करनेवाली क्रमशः ये पांच इंद्रियां हैं—स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत । इन पांचों इन्द्रियों का प्रवर्तक और सब विषयों को ग्रहण करनेवाला मन होता है ।
सर्वार्थग्रहणं मनः ॥ १८ ॥
इन्द्रियों के विषय नियत हैं - वे अपने-अपने नियत विषयों को ग्रहण करती । आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। कान सुन सकते हैं, देख नहीं सकते । मन भी इन्द्रिय है, किन्तु इसका विषय नियत नहीं है । वह पांचों इन्द्रियों का प्रवर्तक है, इसीलिए वह शक्तिशाली इन्द्रिय है । जैन आगमों में स्थान-स्थान पर मनोविजय पर अधिक बल दिया गया है । वह इसीलिए कि एक मन को जीत लेने पर पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है । ब्राह्मण के वेश में आए हुए इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा - 'आप अपने शत्रुओं को जीतकर प्रव्रजित हों तो अच्छा रहेगा ।' नमि ने कहा - 'बाह्य शत्रुओं को जीतने से क्या ? जो एक मन को जीत लेता है, वह पांचों इन्द्रियों को जीत लेता है । जो इन्द्रियों को जीत लेता है, वह समूचे विश्व पर विजय पा लेता है।' शंकराचार्य से पूछा गया'जितं जगत् केन' - संसार को जीतनेवाला कौन है ? उन्होंने कहा - 'मनो हि येन' - जिसने मन को जीत लिया, उसने सारे संसार को जीत लिया ।
कबीर ने कहा है
"मन सागर मनसा लहरी, बूड़े बहुत अचेत । कहहि कबीर ते बांचि है, जिनके हृदय विवेक ॥। मन गोरख मन गोविन्दो, मन ही औच्चड होइ ।
जो मन राखे जतन करि, तो आपे करता होई ॥"
चंचल चित्त सागर की ऊर्मियां हैं तो शान्त मन अनन्त सागर है । मन पर विजय पाने का एकमात्र सूत्र है - जागरूकता, विवेकी होना । मन जब जागरूक - सावधान होता है, तब वह अपनी चंचलता पर नियन्त्रण कर लेता है । चंचलता रुकती है, तब मन का चेतना में लय हो जाता है । वह सचेतन हो उठता है । बाहर भी मनुष्य को मन ले जाता है तो भीतर भी वही ले आता है । हम मन के चंचल पक्ष को ही न पकड़ें, उसके शान्त पक्ष पर भी ध्यान दें । साधना का उद्देश्य है मन को शून्य करना ।
मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है किन्तु असंभव नहीं । अभ्यास से यह
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