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२१० : सम्बोधि
श्रुतिञ्च लब्ध्वा श्रद्धाञ्च, वीर्य पुनः सुदुर्लभम् ।
रोचमाना अप्यनेके, नाचरन्ति कदाचन ॥७॥ ७. धर्म-श्रवण और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी वीर्य (संयम में शक्ति का प्रयोग करना) दुर्लभ है । अनेक लोग श्रद्धा रखते हुए भी धर्म का आचरण नहीं करते।
लब्ध्वा मनुष्यतां धर्म, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः । वीर्य स च समासाद्य, धुनीयाद् दुःखजितम्॥८॥ ८. मनुष्य-जन्म को प्राप्त होकर जो धर्म को सुनता है, श्रद्धा रखता है और संयम में शक्ति का प्रयोग करता है वह व्यक्ति अजित दुःखों को प्रकम्पित कर डालता है ।
४-८-इन श्लोकों में (१) मनुष्यता, (२)धर्म-श्रुति, (३) श्रद्धा, और (४) तप-संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग-विभाग हैं। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं हैं। चारों का एकत्र समाहार विरलों में पाया जाता है। जिनमें ये चारों नहीं पाये जाते वे धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते। एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है।
'दुर्लभं त्रयमेवैतद, देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं, महापुरुषसंश्रयः ॥'
शंकराचार्य ने तीन दुर्लभ बातों का कथन किया है-मनुष्यत्व, मुमुक्षा-भाव और महापुरुषों का सहवास । चार और तीन में विशेष अन्तर नहीं है। एक बात स्पष्ट है कि मानव जीवन दुर्लभ है। मनुष्य की विकसित चेतना यह स्पष्ट करती है कि अतीत में ज्ञात या अज्ञात दशा में मानवीय शरीरस्थ आत्मा ने कोई विशेष पुण्य प्रयत्न किया था, जिसके कारण यह देह मिली है। चौरासी लाख योनियों की अनंत-अनंत यात्राओं के बाद कभी इस जन्म में आने का सौभाग्य मिलता है। इसका महत्व इसलिए है कि मनुष्य जीवन सेतु है। अन्य जीवन कोई सेतु नहीं है । वे किसी न किसी किनारे का जीवन जी रहे हैं। मनुष्य बीच में आ गया। उसके हाथ में वह सत्ता आ गई कि चाहे तो उस पार जा सकता है, जहां परम तत्त्व का प्रत्यक्षीकरण है और चाहे फिर नीचे गिर सकता है। नीचे गिरने का अर्थ होगा-वही चौरासी लाख योनियों का जीवन । 'नो सुलभं पुणरावि
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