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अध्याय ३ । ७३
हो। कितना निकृष्ट भोजन करते हो। चलो, मैं तुम्हें स्वर्ग के महान सुखों में ले चलू । वहां सुख ही सुख है।" सूअर के मन में इन्द्र की बात जंच गई। वह जाने को भी प्रस्तुत हो गया।
उसने पूछा-'अच्छा, एक बात मुझे आप बताएं कि स्वर्ग में मुझे कैसा भोजन मिलेगा? जो मैं यहां खा रहा हूं वह मुझे वहां उपलब्ध होगा या नहीं ?" इन्द्र ने कहा, "नहीं।" तब वह बोला-"तो आपके स्वर्ग से मुझे क्या प्रयोजन ?"
यदि इच्छा की प्रधानता होती तो संसार का कोई प्राणी न मरता, न दुःखी होता, न अस्वस्थ होता और न दीन होता। कर्म का कोई अस्तित्व नहीं रहता। लेकिन ऐसा होता नहीं । इच्छा की प्रधानता नहीं है, प्रधानता है अपने किए हुए कर्मों की । मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, परंतु उसका फल भोगने में परतन्त्र है। उसे अपने कर्मों के अनुरूप ही फल की उपलब्धि होती है। कर्म से मुक्त होने का एक ही उपाय है --- भेद-विज्ञान । भेद-विज्ञान को जाननेवाला व्यक्ति कर्म की शृंखला को तोड़ फेंकता है। इसलिए आचार्य कहते हैं :
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद् भिन्नधाम्नो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किञ्चोपलब्धिः । वत्स ! शान्त रह, व्यर्थ के कोलाहल से क्या होगा? तू अपने आप में शान्त रहकर छह महीने तक लीन रह और हृदय-रूपी सरोवर में पुद्गल से भिन्न चेतना को देख । तुझे तब ज्ञात होगा कि-तुझे क्या उपलब्ध नहीं हुआ है और अभी क्या उपलब्ध है।
सुखानामपि दुःखानां, क्षयाय प्रयतो भव । लप्स्यसे तेन निर्द्वन्द्वं, महानन्दमनुत्तरम् ॥४॥
४८. भगवान् ने कहा- मेध! तू सुख और दुःख को क्षीण करने के लिए प्रयत्न कर। सब द्वन्द्वों से मुक्त, सबसे प्रधान महान् आनन्द–मोक्ष को प्राप्त होगा ।
मोक्ष समस्त द्वन्द्वों से रहित है । सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जन्म-मृत्यु, मानअपमान आदि-आदि द्वन्द्व हैं। इनमें मन का सन्तुलन नहीं रहता। सन्तुलन के अभाव में आनन्द की अनुभूति भी सहज और निर्विकार नहीं रहती।
मोक्ष का अर्थ है-बन्धन-मुक्ति। बन्धनों का सम्पूर्ण विलय चौदहवें गुण
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