________________
१०४ : सम्बोधि
झान-ज्ञान का अर्थ यहां आत्म-बोध है, इन्द्रिय-ज्ञान नहीं।
चारित्र--हेय का परित्याग कर उपादेय का आचरण करना । विजातीय संग्रह से स्वयं को पूर्णतया रिक्त करना।
दर्शन-तत्त्वों के प्रति दृढ़ आस्था, सत्य का साक्षात्कार ।
तप-आत्मा से विजातीय पदार्थ का बहिष्कार करने के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, उस धर्म का नाम तप है।
वीर्य-आत्म-साक्षात्कार के लिए शन्ति का विशुद्ध प्रयोग करना।
हिसैव विषमा वृत्तिर्दुष्प्रवृत्तिस्तथोच्यते।
अहिंसा साम्यमेतद्धि, चारित्रं बहुभूमिकम् ॥२२॥ २२. जितनी हिंसा है उतनी ही विषम वृत्ति या दुष्प्रवृत्ति है। जितनी अहिंसा है उतना ही समभाव (साम्य) है। और जो समभाव है वही चारित्र है। उसकी अनेक भूमिकाएं हैं।
हिंसा प्राणों का वियोजन करना ही नहीं है, राग और द्वेषात्मक प्रवृत्ति भी हिंसा है। प्राणों के वियोजन को ही यदि हिंसा मानें तो कोई भी व्यक्ति पूर्ण
अहिंसक नहीं बन सकता। संयत अवस्था में भी हिंसा सम्भव है। आज के युग में तो यह और भी कठिन है, जबकि विश्व कीटाणुओं से आक्रांत है । वे हमारे शरीर में प्रविष्ट होते हैं । उनकी हिंसा से कौन कैसे बच सकता है । इसलिए पूर्ण अहिंसक की केवल कल्पना ही रह जाती है । गति और स्थिति मनुष्य का धर्म है । वह न चाहता हुआ भी कभी-कभी प्राणों के अतिपात का निमित्त बन जाता है । उस दशा में हम उसे हिंसक कहें या अहिंसक? जैन आचार्यों ने इस जिज्ञासा का समाधान बड़े यौक्तिक ढंग से दिया है। स्वयं भगवान् महावीर के सामने जब यह प्रश्न आया तब उन्होंने हिंसा और अहिंसा के चार विकल्प कर समाधान प्रस्तुत किया
१. द्रव्यतः हिंसा और भावतः अहिंसा । २. भावतः हिंसा और द्रव्यतः अहिंसा। ३. द्रव्यतः हिंसा और भावतः हिंसा । ४. द्रव्यतः अहिंसा और भावतः अहिंसा।
इसमें प्रथम और चतुर्थ दो विकल्प अहिंसा की श्रेणी में चले आते है, और शेष दो हिंसा की। परवर्ती साहित्य में भी इसका स्पष्टीकरण है । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि केवल प्राण-वियोजन ही हिंसा नहीं है। हिंसा है—प्रमाद,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org