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१२६ : सम्बोधि
स्वर्ग में जन्म ले पुनः वहां से मनुष्य जीवन में अवतरित होता है। साधना का पुनः अवसर प्राप्त कर जीवन के सर्वोच्च विकास-शिखर को छू लेता है।
गीता में वर्णित योग-भ्रष्ट व्यक्ति के साथ इसका यत् किञ्चित् सामञ्जस्य किया जा सकता है। ___ योग-भ्रष्ट शब्द का अभिप्राय यह हो कि वह योग-मार्ग को पूर्णतया साध नहीं सका, तो यहां कोई भिन्नता जैसी बात नहीं रहती। यदि इसका अर्थ-योगमार्ग से च्युत हो या बीच में ही छोड़ दिया हो तो फिर दूसरी बात है। किंतु आगे के वर्णन से स्पष्ट है कि वह व्यक्ति किसी योनि में योग-कुल में आकर जन्म ग्रहण करता है और अपने अवशेष योग की साधना में संलग्न होकर उसे परिपूर्णतया साध लेता है।
यथा त्रयो हि वणिजो, मूलमादाय निर्गताः। एकोऽत्र लभते लाभ-मेको मूलेन आगतः ॥१८॥ हारयित्वा मूलमेकमागतस्तत्र वाणिजः ।
उपमा व्यवहारेऽसौ, एवं धर्मेऽपि बुद्धयताम् ॥१९॥ १८-१९. जिस प्रकार तीन बनिये मूल पूंजी लेकर व्यापार के लिए चले । एक ने लाभ कमाया, एक मूल पूंजी लेकर लौट आया
और एक ने सब कुछ खो डाला । यह व्यावहारिक उदाहरण है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए।
मनुष्यत्वं भवेन्मलं, लाभः स्वर्गोऽमतं तथा। मूलच्छेदेन जीवाः स्युस्तिर्यञ्चो नारकास्तथा ॥२०॥
२०. मनुष्य-जन्म मूल पूंजी है । स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति लाभप्राप्ति है। मूल-पूंजी को खो डालने से जीव नरक या तिर्यञ्च गति को प्राप्त होते हैं।
विमात्राभिश्च शिक्षाभिर्ये नरा गृहसुव्रताः। आयान्ति मानुषों योनि, कर्म-सत्या हि प्राणिनः ॥२१॥
२१. जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में
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