Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 503
________________ ४४० : सम्बोधि ध्यान कैसे करें? ___ जन ध्यान के साधक कहते हैं- 'खोजो मत, अगर खोजना चाहते हो तो ठहर जाओ। ध्यान बस ठहर जाना है। जैन परिभाषा में संवरवान बन जाना। संवर का अर्थ है-ठहर जाना, प्रकम्पनों का बन्द हो जाना है । ध्यान का जीवन चंचलता-मुक्त जीवन है। जीवन की अनुभूति प्रकम्पनों में नहीं होती। प्रकम्पनों का जीवन दुःख, अशान्ति का जीवन है। सामान्यतया प्राणी चंचलता में जीते है। ध्यान के मार्ग में प्रयाण करने का अर्थ है-प्रकम्पनों से मुक्त होने का प्रयास करना और उनसे सर्वथा मुक्त हो जाना। प्रकम्पन उत्पन्न होते हैं-शरीर,वाणी मन और श्वास में और उनके कारण हैं-राग-द्वेष। ध्यान इन्हें अप्रकम्पित करता है । इसलिए दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जो ध्यान काया के प्रकम्पनों का निरोध करे वह कायिक ध्यान वाणी का निरोध करें, वह वाचिक ध्यान और मन का निरोध करे वह मानसिक ध्यान और श्वास-प्रश्वास का करे वह आनापान-श्वास-प्रश्वास ध्यान । बुद्ध ने कहा है-ध्यान लग जाय और करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है। करुणा ध्यान का फल है। ध्यान से विरत होने पर साधक को क्या करना चाहिए ? आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है 'मन को समाहित रखना चाहिए, विरक्त रखना चाहिए और ऐसा अनुभव करना चाहिए कि मैं अगाध करुणा सागर में निमग्न हूं।' 'इसके बाद स्वयं को परमात्मा के सदृश अनुभव करना चाहिए या शाश्वत 'अजर, अमर अविनाशी परम स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। स्वयं और परमात्मा में भेद सिर्फ व्यक्ति और शक्ति का है। परमात्मा व्यक्त है, साधक में शक्तिरूप है। ध्यान से जो मन समाहित हुआ था वह शीघ्र ही बाहर के प्रकम्पनों-रागद्वेष आदि प्रवृत्तियों से प्रभावित न हो, साधक इसमें पूर्ण सावधान रहे, यह अपेक्षित है । अन्यथा अन्धा पीसता है और कुत्ता खा जाता है । इधर चित्त का समाधान और उधर अशान्ति-दोनों विरोधी आयाम हैं। ध्यान में जिस शुद्ध ध्येय का प्रतिफलन हुआ उसका स्मरण, चिन्तन भी आवश्यक है । इसलिए दूसरी बात जो निर्दिष्ट की है वह है-परमात्मा का ध्यान । अस्तित्व का स्मरण और तत् सदृश्य स्वयं को अनुभव करना । यह ध्यान से उठने के बाद करणीय कार्य है। ध्यान करणीय है किसी ने कहा है-ध्यान समाधि के विषय में जानना जरूरी नहीं, किन्तु करना जरूरी है । जानना अधिक है भी नहीं, और वह समय भी अधिक नहीं लेता १. ज्ञानार्णव ३१।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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