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अध्याय १४ : ३२५
होता है तभी अनशन स्वीकृत किया जा सकता है । अमरत्व की यह सबसे सुन्दर संजीवनी है कि देह के प्रति ममत्व का विसर्जन किया जाए। जैन दर्शन हर अवस्था में अनशन की अनुमति नहीं देता ।
उसका कथन है कि जब साधक को यह लगे कि शरीर शिथिल हो रहा है, उससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना होनी कठिन है, तब वह खान-पान के विसर्जन से देह - विसर्जन की बात सोचता है। इस दिशा में वह क्रमशः गति करता है और एक दिन सम्पूर्ण त्याग कर समाधि मरण को प्राप्त करता है ।
संयमस्य प्रकर्षाय, मनोनिग्रह हेतवे । प्रतिमाः प्रतिपद्येत श्रावकः साधनारुचिः ॥ ३६ ॥
३६. संयम के उत्कर्ष और मन का निग्रह करने के लिए साधना में रुचि रखने वाला श्रावक प्रतिमाओं को स्वीकार करे ।
दर्शनप्रतिमा दृष्टिमाराधयँल्लोकः,
सर्वमाराधयेत्परम् ॥४०॥
व्रत सामयिक पौषधकायोत्सर्गा मिथुनवर्जनकम् । सच्चित्ताहार वर्जन स्वयमारम्भवर्जने चापि ॥ ४१ ॥ प्रेष्यारम्भ- विवर्जनमुद्दिष्टभक्त वर्जनञ्चापि । श्रमणभूत एकादश प्रतिमा एता विनिर्दिष्टाः ॥४२॥
तत्र, सर्वधर्म रुचिर्भवेत् ।
४०-४२. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं होती हैं : १. दर्शन - प्रतिमा ।
२. व्रत - प्रतिमा ।
३. सामायिक प्रतिमा ।
४. पौषध - प्रतिमा ।
५. कायोत्सर्ग - प्रतिमा ।
६. ब्रह्मचर्य - प्रतिमा । ७. सचित्ताहारवर्जन- प्रतिमा | ८. स्वयंआरंभवर्जन - प्रतिमा । ६. प्रेष्यारंभवर्जन - प्रतिमा १०. उद्दिष्टभक्तवर्जन - प्रतिमा ।
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