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७० : सम्बोधि
४०. शुभ-कर्मों का उदय होने पर जीव को शुभ नाम, शुभ गोत्र, शुभ आयुष्य और शुभ वेदनीय की प्राप्ति होती है ।(शुभ नाम कर्म के उदय से शरीर का सौंन्दर्य, दृढ़ता आदि प्राप्त होते हैं। शुभ गोत्र कर्म के उदय से उच्चता, लोकपूजनीयता प्राप्त होती है । शुभ आयुष्य कर्म के उदय से दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है । शुभ वेदनीय के उदय से सुख की अनुभूति होती है ।)
अशभं वा शभं वापि, कर्म जीवस्य बन्धनम । आत्मस्वरूपसंप्राप्तिर्बन्धे सति न जायते ॥४१॥
४१. कर्म शुभ हो या अशुभ, जीवन के लिए दोनों ही बन्धन हैं । जब तक कोई भी बन्धन रहता है तब तक आत्मा को अपने स्वरूप की संप्राप्ति नहीं होती।
सुखानुगामि यद् दुःखं, सुखमन्वेषयञ् जनः। दुःखमन्वेषयत्येव, पुण्यं तन्न विमुक्तये ॥४२॥
४२. सुख के पीछे दु.ख लगा हुआ है । जो जीव पौद्गलिक सुख की खोज करता है, वह वस्तुतः दुःख की ही खोज करता है क्योंकि पुण्य से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
पुण्य मुक्ति का साधन नहीं है। पूण्य का अर्जन करनेवाला छिपे रूप में सुख की चाह रखता है। उसे आत्म-सुख प्रिय नहीं है। वह चाहता है भोग । भोग की प्राप्ति बन्धनों से विमुक्त नहीं कर सकती । 'पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मतिमूढ़ता और मतिमूढ़ता से व्यक्ति पाप में अवलिप्त हो जाता है। इस प्रकार पुण्य की परंपरा दुःख से आकीर्ण है । अतः आचार्य कहते हैं कि हमें पुण्य भी नहीं चाहिए।' जिसके द्वारा संसार परंपरा बढ़ती है, वह पुण्य कैसे पवित्र हो सकता है ? पुण्य की इच्छा वे ही करते हैं जो परमार्थ से अनभिज्ञ हैं। ____ आचार्य भिक्षु की लेखनी ने इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-'जो पुण्य की इच्छा से तप करते हैं, वे अपनी क्रिया को गंवाकर मनुष्य जीवन को हार जाते हैं। पुष्य तो चतुःस्पर्शी कर्म पुद्गल हैं । जो उसकी इच्छा करते हैं
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