________________
अध्याय २ : ३६
काम की जड़ को कुरेदने के लिए कितना स्वस्थ संकल्प है !
विष और विषय में अधिक अन्तर न होते हुए भी विषय विष से भी अधिक भयंकर है । विष खाने पर व्यक्ति का विनाश करता है और विषय दर्शन से ही। विषय का चिन्तन संक्रामक रोग है । उसका ध्यान करते ही वह चित्त को ग्रसित कर लेता है। आगे बढ़ता-बढ़ता वह इतना हानिकारक हो जाता है कि व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विनाश कर देता है । गीता में कहा है—'हे अर्जुन ! मन सहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होता है। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़ भाव उत्पन्न होता है। अविवेक से स्मरण-शक्ति भ्रमित होती जाती है। स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्ति का नाश हो जाता है। बुद्धि के नाश होने से पुरुष अपने श्रेय-साधन से गिर जाता है।'
कृतकृत्यो वीतरागः, क्षीणावरणमोहनः ।
निरन्तरायः शुद्धात्मा, सर्वं जानाति पश्यति ॥३६॥ ३६. जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय -ये चारों कर्म सर्वथा निर्मूल हो गए हैं वह कृतकृत्य, शुद्धात्मा और वीतराग होता है । वह सब तत्त्वों को जानता और देखता है—वह केवलज्ञान और केवलदर्शन संयुक्त बन जाता है।
भवोपग्राहिकं कर्म, क्षपयित्वायुषः क्षये ।
सर्वदुःखप्रमोक्षं हि, मोक्षमेत्यव्ययं शिवम् ॥३७॥ ३७. वह आयुष्य की समाप्ति होने पर भवोपग्राही (वर्तमान जीवन को टिकाने में सहायक) वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त होता है, जहां आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है, जो शिव है और जिसका कभी व्यय-विनाश नहीं होता।
आत्मा के मूल गुण आठ हैं-केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक आनन्द, क्षायिक सम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तत्व, अगुरुलघुपर्याय, निराबाध सुख । इनको आवृत करने वाले कर्म क्रमशः ये हैं :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org