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४२ : सम्बाध
सुनाया। मलिक ने हंसते हुए कहा- 'जब मैं बनने को तैयार था तब तुम नहीं बना रहे थे और अब मैं बनने की इच्छा त्याग चुका हूं तब तुम बनाने को तैयार हो । जाओ, मैं अब वासना छोड़ चुका हूं।
जैसे ही उसने वासना छोड़ी वह स्वधर्म में प्रतिष्ठित हो गया। जो सद्गुण फोड़ा था वही अब आनंद बन गया।
मनुष्य धर्म नहीं चाहता। वह चाहता है फल । धर्म का फल वस्तुतः भौतिक प्राप्ति नहीं है। उसका वास्तविक परिणाम है-स्वभाव में स्थिति । स्वभाव की स्थापना के लिए धर्म का जहां अभ्यास होता है वहां दीनता, दुःख, असंतोष जैसी वृत्तियों को जीवित रहने का अवकाश कहां रहता है ?
आत्मा का स्वभाव धर्म है-इस मूल मंत्र को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए। जो स्वभाव के लिए जीता है, मरता है, चलता है, बोलता है, सब क्रियाएं करता है वह कैसे स्वयं में दुःखी हो सकता है ? दूसरों की दृष्टि में बाह्य अभाव से वह पीड़ित हो सकता है, किंतु स्वयं में वह कभी पीड़ित नहीं हो सकता। उसके लिए तो वह अभाव भी धन्यवादाह है। वह किसी भी स्थिति में अप्रसन्न नहीं रहता । उसकी दृष्टि प्रतिक्षण स्वयं के अन्तर्दर्शन में निहित रहती है।
भगवान् प्राह
धर्माधर्मों पुण्यपापे, अजानन् तत्र मुह्यति ।
धर्माधर्मों पुण्यपापे, विजानन् नात्र मुह्यति ॥४०॥ ४०. भगवान् ने कहा—जो व्यक्ति धर्म और अधर्म तथा पुण्यपाप को नहीं जानता, वही इसमें मूढ़ होता है । जो इनको जानता है, वह इस विषय में मूढ़ नहीं होता।
सन्तोऽसन्तश्च संस्काराः, निरुद्धयन्ते हि सर्वथा। क्षीयन्ते सञ्चिताः पूर्व, धर्मेणैतच्च तत् फलम् ॥४१॥
४१. धर्म से सत् और असत् संस्कार निरुद्ध होते हैं तथा पूर्व-संचित संस्कार क्षीण होते हैं । यही धर्म का फल है ।।
असन्तो नाम संस्काराः, संचीयन्ते नवा नवाः । अधर्मणेतदेवास्ति, तत्फलं तत्त्वसम्मतम् ॥४२॥
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