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अध्याय ३ : ६७
तेषामेव विपाकेन, जीवस्तथा प्रवर्तते।
नष्कर्येण विना नैष, क्रमः क्वापि विनश्यति ॥३६॥ ३६. उन्हीं कर्मों के विपाक से जीव वैसे ही प्रवृत्त होता है जैसे उनका संग्रह करता है। नैष्कर्म्य (पूर्ण निवृत्ति, पूर्ण संवर) के बिना यह क्रम कभी भी नहीं रुकता ।
पूर्णनैष्कर्म्ययोगस्तु, शैलेश्यामेव जायते । तं गतो कर्मभिर्जीवः, क्षणादेव विमुच्यते ॥३७॥
३७. पूर्ण नैष्कर्म्य-योग शैलेशी अवस्था में होता है। यह अस्वथा चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है। इसमें जीव मन, वाणी और शरीर से कर्म का निरोध कर शैल..-पर्वत की भांति अकम्प बन जाता है, इसलिए इस अवस्था को शैलेशी अवस्था कहते हैं । ___ जीव क्षण में (अ, इ, उ, ऋ, लु,-इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगे उतने समय में) कर्म-मुक्त हो जाता है।
अपूर्ण नाम नैष्कम्यं, तदधोपि प्रवर्तते । नष्कर्येण विना क्वापि, प्रवृत्तिनं भवेच्छुभा ॥३८॥
३८. अपूर्ण नैष्कर्म्य-योग शैलेशी अवस्था से पहले भी होता है, क्योंकि नैष्कर्म्य के बिना कोई भी प्रवृत्ति शुभ नहीं होती।
अर्थक्रियाकारित्व पदार्थ का लक्षण है । यदि अक्रिया को हम स्वीकार करें तो फिर वस्तु का उपरोक्त लक्षण कैसे घटित हो सकता है। गीता का कर्मयोग अनासक्त क्रिया--प्रवृत्ति को भी अकर्म का रूप देता है। शायद उसे भय है कि आत्मा फिर सर्वदा निष्क्रिय न हो जाए। लेकिन थोड़ी गहराई पर उतरने से ऐसा नहीं होता।
प्रवृत्तियां द्विमुखी होती हैं -बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी। अन्तर्मुखी क्रिया का प्रवर्तन प्रतिक्षण चालू रहता है। वह आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था में भी रुकता नहीं। आत्मा बाहरी क्रियाओं से निष्क्रिय हो, अन्तरंग में सक्रिय हो जाती है।
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