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अध्याय १२ : २५७
२. अपाय-विचय-हेय क्या है, इसका चिन्तन करना। ३. विपाक-विचय-हेय के परिणामों का चिन्तन करना। ४. संस्थान-विचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिन्तन
करना। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान ये ध्येय हैं । जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलंबन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय-विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिन्तन से चित्त-निरोध होता है, चित्त की शुद्धि होती है, इसलिए इनका चिन्तन धर्म-ज्ञान कहलाता है।
आज्ञा-विचय से वीतराग-भाव की प्राप्ति होती है। अपाय-विचय से राग-द्वेष, मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति मिलती है। विपाक-विचय से दुःख कैसे होता है ? क्यों होता है ? किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता है ? ---- इनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान-विचय से मन अनासक्त बनता है। विश्व की उत्पाद, व्यय और ध्र वता जान ली जाती है, उसके विविध परिणामपरिवर्तन जान लिये जाते हैं, तब मनुष्य स्नेह, घृणा, हास्य, शोक आदि विकारों से विरत हो जाता है।
अप्युत्तमसंहननवतां पूर्व विदां भवेत् । शुक्लस्य द्वयमाद्यन्तु, स्याच्च केवलिनोऽन्तिमम् ॥४२॥
४२. शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद उत्तम संहनन वाले तथा पूर्वधरों में पाये जाते हैं। शेष दो भेद केवलज्ञानी में पाये जाते हैं ।
सक्ष्मकियोऽप्रतिपाती, समुच्छिन्नक्रियस्तथा। क्षपयित्वा हि कर्माणि, क्षणेनैव विमुच्यते ॥४३॥
४३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिय-शुक्ल ध्यान के इन दो अंतिम भेदों में वर्तमान केली कर्मों का क्षय कर क्षण-भर में मुक्त हो जाता है ।
शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं : १. पृथक्त्व-विचार-सविचार
एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का चिन्तन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन होता रहता है।
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