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८० : सम्बोधि
इन्द्रियाणि निवर्तन्ते, ततश्चित्तं निवर्तते । तत्रात्मदर्शनं पुण्यं ध्यानलीनस्य जायते ॥८॥
८. इन्द्रियां अपने विषयों से निवृत्त होती है तब चित्त अपने विषय से निवृत्त होता है। जहां इन्द्रिय और मन की अपने-अपने विषयों से निवृत्ति होती है, वहां ध्यान- लीन व्यक्ति को पवित्र आत्मदर्शन की प्राप्ति होती है ।
आत्म-सुख की उपलब्धि का साधन ध्यान है। इससे शरीर, वाणी और मन की स्थिरता होती है । इन्द्रियों की स्वविषयों से उपरति होती है, तब बे अन्तर्मुखी बन जाती हैं । इन्द्रियों को अन्तर्लीनता से मन का बहिविहार भी रुक जाता है । उस समय केवल चेतना का व्यापार चालू रहता है । शरीर और इन्द्रियां
हैं । वे अनुभूतिशून्य हैं। अनुभूति चेतना का धर्म है । चेतना आत्मा का गुण है, आत्मा की आत्मलीनता है; आत्म-दर्शन है । जब आत्म-दर्शन का स्पर्श होता है तब आत्म-सुख की प्रतीति होने लगती है । वह अनुभूति इन्द्रिय, शरीर और मानसिक तर्क का विषय नहीं बनती ।
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सहजं निरपेक्षञ्च निर्विकारमतीन्द्रियम् । आनन्दं लभते योगी, बहिरव्याप्तेन्द्रियः ॥ ६ ॥
६. जिसकी इन्द्रियों का बाह्य पदार्थों में व्यापार नहीं होता वह योगी सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त होता है ।
आनन्द के चार रूप हैं— सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय । भौतिक सुख असहज, सापेक्ष, विकृत और इन्द्रियजन्य होता है, इसलिए वह कृत्रिम है । उसमें सतत अतृप्ति बनी रहती है ।
आत्म-आनन्द इसका सर्वथा विरोधी है । उसका स्पर्श ही ऐसा है कि व्यक्ति फिर उससे विमुख हो ही नहीं सकता। वह बिना किसी प्रेरणा के स्वतः ही अग्रसर होता रहता है । वह आनन्द स्वाभाविक होता है। वहां आकांक्षा का स्रोत सूख जाता है । उसमें बाहरी पदार्थों की अपेक्षा नहीं रहती । उनके न रहने पर आनन्द का अभाव नहीं होता । वही पवित्र और शुद्ध होता है जिसका किसी के साथ कुछ लगाव नहीं रहता और जो इन्द्रियगम्य नहीं है ।
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