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अध्याय १३ : २६७ जा सकता। वह बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है । आचारांगसूत्र में इसके स्वरूप का विशेष वर्णन है ।
अस्तित्व का बोध असीम है । शब्द ससीम है । ससीम में असीम को बांधने से भ्रम पैदा होता है । इसलिए सभी ने स्वरूप — अस्तित्व को अवाच्य कहा है । 'अवाङ, मनसो गोचरम्' वाणी और मन का वह विषय नहीं बनता । 'नेति नेति' यह भी नहीं है, यह भी नहीं है— जो शेष रह जाता है वह 'अस्तित्व' है । 'लाओत्से' ने कहा है- जो उस के सम्बन्ध में लिखूंगा तो वह झूठ होगा । जो लिखना है वह लिखा नहीं जाएगा। जब चीन के सम्राट् ने लिखने को विवश कर दिया, तब यह लिखते हुए प्रारम्भ किया कि 'बड़ी भूल हुई जा रही है – 'जो कहना है वह कहा नहीं जाता और जो नहीं कहना है वह कहा जाएगा ।" मैं जानकर लिखने बैठा हूं, इसलिए जो आगे पढ़ें वे जानकर पढ़ें कि सत्य बोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा • सकता और जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं हो सकता ।" महावीर ने सत्य को अवक्तव्य कहा है । इसमें भी यही कहा है कि यहां न मन पहुंचता है, न शब्द, और
बुद्धि । अस्तित्व का आकार है, न रूप है, न वह स्त्री, न पुरुष, न नपुंसक है, नजाति है आदि । बुद्ध ने इसके सम्बन्ध में प्रश्न करने से भी मना कर दिया कि कोई पूछे ही नहीं । वस्तुतः यह शब्द का विषय नहीं, अनुभूति का है । शब्दों को अनुभूति समझ ली जाए तो यात्रा रुक जाती है । शब्द सिर्फ संकेतवाहक हैं ।
ग्रामे वा यदि वाऽरण्ये, न ग्रामे नाप्यरण्यके । रागद्वेषलयो यत्र, तत्र सिद्धिः प्रजायते ॥ २२ ॥
२२. सिद्धि गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है । वहन गांव में हो सकती है और न अरण्य में ही । सिद्धि वहीं होती है जहां राग और द्वेष क्षीण होता है ।
साधना का घनिष्ठ सम्बन्ध आत्मा से है । इसलिए साधन आत्मा ही है । आत्मा की सिद्धि में बाहरी निमित्तों का खास महत्त्व नहीं है । लेकिन फिर भी वे बनते हैं क्योंकि वे सिद्धि में सहायक हैं । कहीं-कहीं हम साधनों का उल्टा प्रभाव भी देखते हैं । एकान्त स्थान जहां आत्म-साधन में सहायक है वहां वह बाधक भी
जाता है। इसलिए एकान्ततः हम किसी को भी स्वीकार नहीं कर सकते । साधना के बाहरी निमित्तों पर बल देने की अपेक्षा आन्तरिक पक्ष पर बल देना अधिक उपयोगी है |
साधना का आन्तरिक पक्ष है— राग-द्वेष पर विजय । जो राग-द्वेष का विजेता है, उसके लिए गांव, नगर, उपवन, नदी, तट आदि सब समान हैं ।
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