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२४४ : सम्बोधि
प्रारम्भिक दशा में मन की एकाग्रता होती है और अन्तिम अवस्था में उसका निरोध होता है । मन के सम्यक् प्रवर्तन ( समिति ) और उसके निरोध ( गुप्ति) में सारा योग समा जाता है ।
मोक्षेण योजनाद् योगः, समाधिर्योग इष्यते । सतपो विद्यते द्व ेधा, बाह्यनाभ्यन्तरेण च ॥६॥
६. जो आत्मा को मोक्ष से जोड़े, वह योग कहलाता है । आत्मा और मोक्ष का सम्बन्ध समाधि से होता है, इसलिए समाधि को योग कहा जाता है । योग तप है । उसके दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप ।
चतुर्विधस्याहारस्य त्यागोऽनशनमुच्यते । आहारस्याल्पतामाहु - रवमौदर्यमुत्तमम् ॥ १० ॥
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१०. अन्न, पानी, खाद्य ( मेवा आदि) और स्वाद्य ( लवंग आदि) इस चार प्रकार के आहार के त्याग को अनशन कहते हैं । आहार, पानी, वस्त्र, पात्र एवं कषाय की अल्पता करने को अवमौदर्य (ऊनोदरिका ) कहते हैं ।
अभिग्रहो हि वृत्तीनां वृत्तिसंक्षेप इष्यते । भवेद् रसपरित्यागो, रसादीनां विवर्जनम् ॥११॥
११. विवध प्रकार के अभिग्रहों (प्रतिज्ञाओं) से जिस वृत्ति का निरोध किया जाता है, उसे वृत्तिसंक्षेप ( भिक्षाचरिका ) कहते हैं। घो, तेल, दूध, दही, चीनी और मिठाई - इन विकृतियों ( विगयों) का त्याग करने को रस परित्याग कहते हैं ।
कायोत्सर्गश्च पर्यङ्क- वीर - पद्मासनानि च । गोदोहिकोत्कटिका च, कायक्लेशो भवेदसौ ॥१२॥
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