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मनःप्रसाद
मेघः प्राह
मनःप्रसादमर्हामि, किमालम्बनमाश्रितः । कथं प्रमादतो मुक्तिमाप्नोमि ब्रूहि मे विभो ! ॥१॥
१. मेघ बोला-विभो ! मैं किसे आलम्बन बनाकर मानसिकप्रसाद को पा सकता हूं? और मुझे बताइए कि मैं प्रमाद से मुक्त कैसे बन सकता हूं?
जोशुआलीब येन ने अपने संस्मरणों में लिखा है-'जब मैं जवान था तब मुझे "क्या पाना है ? इसका स्वप्न देखा करता था। एक सूची बनाई थी जिसके सूत्र थे
१. स्वास्थ्य २. सौन्दर्य ३. सुयश ४. शक्ति ५. सम्पत्ति । बस, सतत मैं इन्हीं का स्मरण करता था और समग्र प्रयास भी इन्हें पाने के लिए था। एक अनुभवी वृद्ध सज्जन थे। मैंने सोचा-इनसे सलाह ले लूं । मैं गया और अपनी सूची सामने रखी। वृद्ध हंसा और कहा-सूची सुन्दर है किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात छोड़ दी, जिसके अभाव में सब व्यर्थ है। जोशुआलीवयेन ने कहा-मेरी दृष्टि में जो भी आवश्यक है, वह सब आ गया। कोई बची हो ऐसा नहीं लगता। वृद्ध सज्जन ने सब काटते हुए कहा.-Peace of Mind 'मन की शांति' यह महत्वपूर्ण है। सब सब हो, और अगर मन की शांति न हो तो क्या? ___ मेघ ने जानने की बहुत लम्बी यात्रा तय की। किन्तु मन की शांति नहीं मिली। ज्ञान का परिचय, संग्रह एक अलग बात है और ज्ञान की अनुभूति भिन्न। प्रत्यक्ष पानी और अन्त की बात अलग है और शब्दमय अन्न तथा पानी की पृथक् । अन्न और पानी शब्द भूख और प्यास शान्त नहीं करते । केवल परिचयात्मक तत्व के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। अनुभूत्यात्मक ज्ञान ही मनुष्य की पिपासा शान्त कर सकता है। इसलिए मेघ ने कहा-'प्रभो ! मानसिक सुख, प्रसन्नता कीप्राप्ति कैसे हो और कैसे हो प्रमाद से मुक्ति ? कृपया मुझे इसका मार्ग-दर्शन दें।'
मेघ जानता है कि वस्तुओं से होने वाला सुख प्रसाद या आनन्द अवास्तविक
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