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४४ : सम्बाधि
प्रवर्धते परा शान्तिः, धृतिः संतुलनं क्षमा । फलान्यमूनि धर्मस्य, फलं तस्यास्ति नो धनम् ॥४८॥
४७-४८. धर्म से ज्ञान और दर्शन अनावृत होते हैं; सहज आनन्द स्फुरित होता है और अपराजित वीर्य उपलब्ध होता है।
धर्म से उत्कृष्ट शान्ति, धृति, सन्तुलन और क्षमा-ये बढ़ते हैं । ये सब धर्म के फल हैं । किन्तु धन प्राप्त होना धर्म का फल नहीं है।
जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया वाचक नहीं है। वह आत्मा पर लगे सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति से कर्म का आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण और निर्झरण। जब आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है, तब वह परम आत्मा बन जाती है। __ कर्म विषयक पारंपरिक धारणाओं के आधार पर यह माना जाता है कि आत्मिक या पौद्गलिक—सभी पदार्थों की प्राप्ति कर्मों के द्वारा ही होती है। यह “धारणा एकान्ततः सत्य नहीं है।
कर्म आठ हैं : १. ज्ञानावरणकर्म-ज्ञान के आवारक कर्म पुद्गल । २. दर्शनावरणकर्म-सामान्य बोध के आवारक कर्म पुद्गल । ३. वेदनीयकर्म-अनुभूति के निमित्त कर्म पुद्गल । ४. मोहनीयकर्म-आत्मा को मूढ़ या विकृत बनाने वाले कर्म पुद्गल । ५. आयुष्यकर्म-जीवन के निमित्तभूत कर्म पुद्गल ।। ६. नामकर्म-शरीर संबंधी विविध सामग्री के हेतुभूत कर्म पुद्गल । ७. गोत्रकर्म-सम्मान-असम्मान के हेतुभूत कर्म पुद्गल। ८. अन्तरायकर्म-क्रियात्मक शक्ति पर प्रभाव डालने वाले कर्म पुद्गल ।
इनमें-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार कर्म आत्मा के मूल गुणों के आवारक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। शेष चार कर्म शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त बनते हैं। ___सुख-सुविधा की सामग्री की प्राप्ति केवल कर्म से नहीं होती। उनकी प्राप्ति में देश, काल, निमित्त, पुरुषार्थ आदि का भी पूरा योग रहता है । अमुक देश के वासी अशिक्षित हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि उनमें ज्ञानावरण कर्म का क्षय-क्षयोपशम नहीं है। किन्तु कुछ बाह्य परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि वे उनके ज्ञान में बाधक बनती हैं। जब वे स्थितियां दूर हो जाती हैं, तब शिक्षा के लिए अनुकूल वातावरण पैदा होता है और शत-प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हो जाते हैं।
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