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८४ : सम्बोधि
'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 'जो पूर्ण है, जिससे उत्पन्न हुआ है वह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण कम नहीं होता । प्रत्युत जितना है उतना ही रहता है।' आनन्द अवाच्य है
यथा मूकः सितास्वाद, काममनुभवन्नपि ।
साधनाभावमापन्नो, न वाचा वक्तुमर्हति ॥१५॥ १५. जैसे मूक व्यक्ति को चीनी की मिठास का भली-भांति अनुभव होता है, फिर भी वह बोलकर उसे बता नहीं सकता, क्योंकि उसके पास अभिव्यक्ति का साधन वाणी नहीं है ।
यथाशरण्यो जनः कश्चिद्, दृष्ट्वा नगरमुत्तमम् । अदृष्टनगरानन्यान्, न तज्जापयितुं क्षमः ॥१६॥ तथा हि सहजानन्दं, सर्ववाचामगोचरम् । साक्षादनु भवंश्चापि, न योगी वक्तुमर्हति ॥१७॥
१६-१७. जैसे जंगल में रहने वाला कोई मनुष्य बड़े नगर को देखकर उन व्यक्तियों को उसका स्वरूप नहीं समझा सकता जिन्होंने नगर न देखा हो; उसी प्रकार योगी सहज आनन्द का साक्षात् अनुभव करता है किन्तु वह वचन का विषय नहीं है इसलिए वह उसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता।
भावेऽनिर्वचनीयेऽस्मिन् संदेहं, वत्स ! मा कुरु।
बुद्धिवादः ससीमोऽयं, मनः परं न धावति ॥१८॥ १८. वत्स ! इस अनिर्वचनीय भाव में सन्देह मत कर। यह बुद्धिवाद सीमित है, मन से आगे इसकी पहुच नहीं है।
सन्त्यमी द्विविधा भावास्तर्कगम्यास्तथेतरे। अतक्र्ये तर्कमायुञ्जन्, बुद्धिवादी विमुह्यति ॥१९॥
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