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अध्याय ३ : ७१
मूढ हैं; उन्होने न धर्म को जाना है, न कर्म को । पुण्योदय से होनेवाले सुखों में जो प्रसन्न होता है, वह कर्म का संग्रह करता है । अनेक प्रकार के दुःखों में प्रवेश करता है और मुक्ति से दूर हटता है । पुण्य की इच्छा करनेवाला भोग की इच्छा करता है और भोगासक्त व्यक्ति अप्रकट रूप में नारकीय यातनाओं को ही चाहता है ।
जयाचार्य प्रारम्भ से यह प्रतिबोध देते हैं कि पुण्य की कामना मत करो। वह खुजली के रोग जैसा है, जो प्रारंभ में सुखद और परिणाम में भयावह है । स्वर्ग, चक्रवर्ती आदि के सुख भी नश्वर हैं । साधक की दृष्टि सदा मोक्ष या आत्म-सुख की ओर रहे ।
आगम कहते हैं— इहलोक, परलोक, पूजा - श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो । यही बात वेदान्त के आचार्यो ने कही हैं - 'मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।' पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति मिलती है । गीता कहती है- बुद्धिमान् व्यक्ति को सुकृत (पुण्य) और दुथ्कृत (पाप) - दोनों का त्याग करना चाहिए ।
पुद्गलानां प्रवाहो हि, नैष्कर्म्येण निरुद्धयते । लुटयन्ति पाप कर्माणि नवं कर्म न कुर्वतः ॥ ४३ ॥
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४३. पुद्गलों का जो प्रवाह आत्मा में प्रवाहित हो रहा है वह नैष्कर्म्य (संवर) से रुकता है । जो नए कर्म का संग्रह नहीं करता, उसके पूर्वसंचित पाप कर्म का बन्धन टूट जाता है ।
अकुर्वतो नवं नास्ति,
कर्मबन्धनकारणम् । नोत्पद्यते न म्रियते यस्य नास्ति पुराकृतम् ॥४४॥
४४. जो क्रिया नहीं करता (संवृत है ) उसके नए कर्मों के बन्धन का कारण शेष नहीं रहता । जिसके पहले किए हुए कम नहीं हैं, वह न जन्म लेता है और न मरता है ।
शरीरं जायते बद्धजीवाद् वीर्यं ततः स्फुरेत् । ततो योगो हि योगाच्च, प्रमादो नाम जायते ॥ ४५ ॥
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