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६० : सम्बोधि
मैं सीधा सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा जानना है-प्रत्यक्षानुभूति है। अस्तित्व के साथ मैं किसी माध्यम से सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा मानना है-परोक्षानुभूति है। प्रकाश जैसे-जैसे आवृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं जानने से मानने की ओर झुकता जाता हूं। प्रकाश जैसे-जैसे अनावृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं मानने से जानने की ओर बढ़ता जाता हूं। मानने से जानने तक पहुंचना भारतीय दर्शन का ध्येय है, और पहुंच जाना अस्तित्व का प्रत्यक्ष-बोध है। मैं सूर्य को जानता हूं, उससे सूर्य का अस्तित्व नहीं है। बीहड़ जंगलों में विकसित फूल को मैं नहीं जानता , उससे फूल का अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व अपनी गुणात्मक सत्ता है । वह न जानने-मानने से बनती है और न जानने से विघटित होती है। फूल की उपयोगिता, मेरे जानने से निष्फल होती है और न जानने से विघटित हो जाती है। उपयोगिता मेरा और अस्तित्व का योग है। अस्तित्व दो का योग नहीं है किन्तु वह निरपेक्ष है । 'मैं हूं'--यह निरपेक्ष अस्तिवर है । दूसरे मुझे अनुभव करते हैं, इसलिए मैं नहीं हूं किन्तु मैं हूं, इसलिए मुझे दूसरे अनुभव करते हैं। मैं अपने-आप में अपना अनुभव करता हूं, इसलिए मैं हूं।'
__ संशय के बादलों को छिन्न-भिन्न करते हुए बड़े मधुर शब्दों में महावीर कहते हैं-मेघ ! उस आनन्द का मैं प्रमाण हूं, मुझे देख । यह जो कुछ मैंने कहा है वह मेरा अनुभव है, प्रत्यक्ष दर्शन है। इसमें तर्क का कोई अवकाश नहीं है और न इसमें किसी शाब्दिक-प्रमाण की आवश्यकता है। परायापराया है और अपना अपना। तू समस्याओं से मुक्त हो और स्वयं प्रत्यक्षीकरण का पथिक बन । अनुभव सदा सत्य होता है।
आगमानामधिष्ठान, वेदानां वेद उत्तमः। उपादिदेश भगवानात्मानन्दमनुत्तरम् ॥३०॥
३०. भगवान् ने अनुत्तर आत्मानन्द का उपदेश दिया। वे आगमों के आधार और वेदों (ज्ञानों) में उत्तम वेद थे।
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