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अध्याय ३ : ५७
४. सुख-दुःख का दाता आत्मा है।
जैन दर्शन आत्म-कर्तृत्व का पोषक है। उसके अनुसार आत्मा सद्-असद् 'प्रवृत्ति के द्वारा पुद्गलों को आकृष्ट करती है । आकर्षण कषाय-सापेक्ष होता है। मन्दता और तीव्रता का आधार भी यही है। ये आकृष्ट पुद्गल कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों के उदय से आत्मा वैभाविक प्रवृत्तियों में जाती है और इनके क्षय से आत्मा स्वभाव की ओर अग्रसर होती है। जब इनका सम्पूर्ण विलय हो जाता है तब आत्मा निर्वाण को प्राप्त होती है, परमात्मा बन जाती है।
भगवान् प्राह
शरीरप्रतिबद्धोऽसावात्मा, चरति संततम् । सकर्मा क्वापि सत्कर्मा, निष्कर्मा क्वापि संवृतः॥१३॥
भगवान् ने कहा-यह आत्मा शरीर में आबद्ध है। कर्म शरीर के द्वारा नियन्त्रित है। कर्मों के द्वारा ही वह सतत भव-भ्रमण करता है । जहां मोह-कर्म का उदय होता है वहां आत्मा की असत् प्रवृत्ति होती है, उससे पाप-कर्म का आकर्षण होता है। उसे सकर्मा कहा जाता है। जहां मोह-कर्म क्षीण होता है वहां आत्मा की सत्-प्रवृत्ति होती है, उससे पुण्य-कर्म का आकर्षण होता है । उसे सत्कर्मा कहा जाता है । जहां मोह-कर्म अधिक मात्रा में क्षीण होता है वहां प्रवृत्ति का निरोध होता है, उससे कर्म का ग्रहण नहीं होता । उसे निष्कर्मा कहा जाता है ।
कुर्वन् कर्माणि मोहेन, सकर्मात्मा निगद्यते । अर्जयेदशुभं कर्म, ज्ञानमावियते ततः ॥१४॥
१४. मोह के उदय से जो व्यक्ति क्रिया करता है, वह सकर्मात्मा कहलाता है । सकर्मात्मा अशुभ कर्म का बन्धन करता है और उससे ज्ञान आवृत होता है।
आवृतं दर्शनं चापि, वीयं भवति बाधितम् । पौद्गलिकाश्च संयोगाः, प्रतिकूलाः प्रसृत्वराः ॥१५॥
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