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अध्याय १६ : ३७५
२३. जो तीब्र हिंसा में परिणत है, बिना विचारे कार्य करता है, भोग से विरत नहीं है और पांच आश्रवों में प्रवृत्त है वह व्यक्ति कृष्णलेश्या वाला होता है।
ईष्यालुषमापन्नो, गृद्धिमान् रसलोलुपः। अह्रीकरच प्रमत्तश्च, नीललेश्यो भवेत् पुमान् ॥२४॥
२४. जो ईर्ष्यालु है, द्वेष करता है, विषयों में आसक्त है, सरस आहार में लोलुप है, लज्जाहीन और प्रमादी है, वह व्यक्ति नीललेश्या वाला होता है।
वक्रो वक्रसमाचारो, मिथ्यादृष्टिश्च मत्सरी। औपधिको दुष्टवादी, कापोतीमाश्रितो भवेत् ॥२५॥
२५. जिसका चिन्तन, वाणी और कर्म कुटिल होता है, जिसकी दृष्टि मिथ्या है, जो दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं करता, जो दम्भी है और जो दुर्वचन बोलता है वह व्यक्ति कापोतलेश्या वाला होता है।
विनीतोऽचपलोऽमायी, दान्तश्चावद्यभीरुकः। प्रियधर्मा दृढधर्मा, तेजसीमाश्रितो भवेत् ॥२६॥
२६. जो विनीत है, जो चपलता-रहित है, जो सरल है, जो इन्द्रियों का दमन करता है, जो पापभीरु है, जिसे धर्म प्रिय है और जो धर्म में दृढ़ है वह व्यक्ति तैजस लेश्या वाला होता है।
तनुतमक्रोध-मान-माया-लोभो जितेन्द्रियः। प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा,पद्मलेश्यो भवेत् पुमान् ॥२७॥
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