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अध्याय ३ : ५३
४. इस प्रकार का व्यक्ति किए हुए कर्मों की शुद्धि के लिए और स्वीकृत मोक्ष-मार्ग में निरन्तर रहने के लिए यथाशक्ति कष्टों को आमन्त्रित करता है ।
अकष्टासादितो मार्गः, कष्टापाते प्रणश्यति । कष्टेनापादितोमार्गः, कष्टेष्वपि न नश्यति ॥५॥
५. कष्ट सहे बिना जो मार्ग मिलता है वह कष्ट आ पड़ने पर नष्ट हो जाता है और कष्ट सहकर जो मार्ग प्राप्त किया जाता है वह कष्टों के आ पड़ने पर भी नष्ट नहीं होता।
आस्तिक या अध्यात्मवादी व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रारंभ से ही सत्य का स्पर्श किए चलता है। वह भौतिकवाद कुछ नहीं है, यह नहीं मानता। वह यह मानता है कि यह जीवन का साध्य नहीं है। सत्योन्मुखी दृष्टि के होने पर भौतिकवाद आत्म विकास का बाधक नहीं होता। अन्यथा व्यक्ति उसी के पीछे पागल बन जाता है, कष्टों से उकताकर धैर्य को खो देता है और नये-नये दुःखों का अर्जन कर लेता है।
धार्मिक व्यक्ति दुःखों से कतराता नहीं । वह यह मानकर चलता है कि मैं हल्का-निर्भार हो रहा हूं । कष्टों में उसके धैर्य का बांध और अधिक सुदृढ़ होता है। 'विपदि धैर्यम्'–विपत्ति में धीरज का होना महान् पुरुषों का लक्षण है। सोने की शुद्धि के लिए अग्निस्नान अपेक्षित है, वैसे ही आत्म-शुद्धि के लिये कष्टाग्नि की अपेक्षा है। अध्यात्मवादी समागत कष्टों को केवल झेलता ही नहीं किंतु अनागत दुःखों को निमन्त्रित भी करता है। वह साधना में निखार लाने के लिए विविध तपों का अबलम्बन लेता है ।
बलं वीयं च संप्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः ।
क्षेत्रं कालञ्च विज्ञाय, तथात्मानं नियोजयेत् ॥६॥ ६. अपने बल (शारीरिक सामर्थ्य), वीर्य (आत्मिक सामर्थ्य), श्रद्धा और आरोग्य को देखकर, क्षेत्र और समय को जानकर, व्यक्ति उसी के अनुसार अपनी आत्मा को सक्रिया में लगाए।
तपस्तथा विधातव्यं, चित्तं नातं भजेद् यथा । विवेकः प्रमुखो धर्मो, नाविवेको हि शुद्धयति ॥७॥
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