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१८४ : सम्बोधि
ये देव कुमार के समान सुन्दर, कोमल और ललित होते हैं। ये क्रीड़ा-परायण और तीव्र रागवाले होते हैं। ज्योतिषी देव पांच प्रकार के होते हैं :
चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक । वैमानिक देव__इनके दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के हैं। इनके नाम क्रमशः उनतीसवें श्लोक से बत्तीसवें श्लोक तक दिए गए हैं।
ग्रेवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव कल्पातीत होते हैं । ग्रेवेयक के नौ और अनुत्तर के पांच भेद हैं।
आत्मिक सुख की तुलना पौद्गलिक सुखों से नहीं की जा सकती; क्योंकि वे क्षणिक, अशाश्वत और बाह्य-वस्तु सापेक्ष होते हैं। पौद्गलिक सुख में भी तरतमता होती है । साधारण मनुष्य और असाधारण मनुष्य में विभेद देखा जाता है। देव-सुखों की तुलना में मनुष्य के सुख तुच्छ हैं । देवताओं में भी सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख सामान्य देवताओं के सुखों से अनन्तगुण अधिक हैं। लेकिन आत्मिक सुख की तुलना में सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख भी अकिंचित्कर हैं। ___इन श्लोकों का पतिपाद्य यही है कि साधना ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, मुनि के आनन्द का भी उत्कर्ष होता जाता है। वास्तव में आत्मानंद की तुलना किसी पौद्गलिक पदार्थ से प्राप्त सुख या आनंद से नहीं की जा सकती, किंतु सामान्य बोध के लिए उसकी यह तुलना की गई है।
ततः शुक्लः शुक्लजातिः, शुक्ललेश्यामधिष्ठितः ।
केवली परमानन्दः, सिद्धो बुद्धो विमुच्यते ॥३६॥ ३६. उसके बाद वह शुक्ल और शुक्ल जाति वाला मुनि शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर केवली होता है, परम आनन्द में मग्न, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है।
अभवंश्च भविष्यन्ति, सुव्रता धर्मचारिणः।
एतान् गुणानुदाहुस्ते, साधकाय शिवरान् ॥३७॥ ३७. अच्छे व्रत वाले जो धार्मिक हुए हैं और होंगे, उन्होंने साधकों के लिए कल्याण करने वाले इन्हीं गुणों का निरूपण किया है या करेंगे।
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