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आमुख
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धर्म का चरम फल आत्मा का पूर्ण विकास है । मनुष्य धर्म का आचरण करता है और सतत अभ्यास से अपने लक्ष्य तक पहुंचता है । जब मोहकर्म का सम्पूर्ण विलय हो जाता है, तब उसमें वीतरागता का प्रादुर्भाव होता है । वीतरागता का अर्थ है - समता का चरम विकास । इससे सिद्धि प्राप्त होती है । सिद्ध अवस्था को प्राप्त आत्मा अपने आनन्द स्वरूप में स्थित रहती है । दुःखों का अन्त हो जाता है। न उसे बाहर से कुछ लेना होता है और न भीतर से कुछ छोड़ना होता है । जैसा वह था, है और रहेगा, उसे ही प्राप्त कर लेता है । जहां न मन है, न वाणी है और न शरीर है ।
यह अन्तिम विकास की बात है,
धर्म की प्रारम्भिक भूमिकाओं में मन, वाणी और शरीर रहता है । वाणी और शरीर स्वाधीन नहीं हैं । वे मन के अधीन हैं । मन की प्रसन्नता में वे प्रसन्न हैं और अप्रसन्नता में अप्रसन्न । धर्म सब दुःखों का अन्त करता है । यह बात गीता भी कहती है- 'जो धर्म मन को विषाद मुक्त नहीं करता, वस्तुतः वह धर्म भी नहीं है ।' मानसिक प्रसन्नता अध्यात्म का फल है । वह कैसे मिलती है, कहां से प्राप्त होती है, उसकी क्या साधना है आदि समस्याओं का समाधान इस अध्याय में है । . पिछले सभी अध्यायों का निष्कर्ष यहां उपलब्ध है ।
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