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अध्याय १२ : २५६
शारीरिक सहायक सामग्री है। अनासक्त दशा में इनका उपयोग होता है तो ये संयमपोषक बन जाती हैं, अन्यथा शरीरपोषक । शरीरपोषण आत्म-धर्म नहीं है । आत्म-धर्म है संयम | संयम की साधना में रत साधक देहाध्यास का परित्याग कर आत्मोपासना में दृढ़ होता है । व्युत्सर्ग की साधना के बिना देहाध्यास, ममत्व और आकर्षण छूटता नहीं ।
भावना योग
अनित्यो नाम संसारस्त्राणाय कोऽपि नो मम । भवे भ्रमति जीवोsसौ, एकोऽहं देहतः परः ॥ ४७ ॥ अपवित्रमिदं गात्रं, कर्माकर्षणयोग्यता । निरोधः कर्मणां शक्यो, विच्छेदस्तपसा भवेत् ॥४८॥ धर्मो हि मुक्तिमार्गोऽस्ति, सुकृतालोकपद्धति : दुर्लभा वर्तते बोधिरेता द्वादश भावना ॥४६॥
४७-४६.
१. 'संसार अनित्य है' - ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है । २. 'मेरे लिए कोई शरण नहीं है' - ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है ।
३. 'यह जीव संसार में भ्रमण करता है' ऐसा चिन्तन करना भव भावना है ।
४. 'मैं एक हूं' - ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है । ५. 'मैं देह से भिन्न हूं' - ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है । ६. 'शरीर अपवित्र है' ऐसा चिन्तन करना अशौच भावना है ।
७. 'आत्मा में कर्मों को आकृष्ट करने की योग्यता है - ऐसा चिन्तन करना आस्रव भावना है ।
5. 'कर्मों का निरोध किया जा सकता है - ऐसा चिन्तन करना संवर भावना है ।
६. 'तप के द्वारा कर्मों का क्षय किया जा सकता है' -- ऐसा चिन्तन करना तप भावना है ।
१०. मुक्ति का मार्ग धर्म है' - ऐसा चिन्तन करना धर्म भावना है ।
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