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अध्याय ५ : १३
भहिंसा की साधना नहीं कर पाता।
मोक्ष साध्य है। धर्म साधन है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र धर्म है। अहिंसा सम्यक् चारित्र की एक कड़ी है । दर्शन आत्मा का निश्चय कराता है। ज्ञान आत्म-स्वरूप का प्रतिभास कराता है और चारित्र उसमें रमण कराता है। अहिंसा और आत्मरमण दो नहीं हैं। अहिंसा के बिना चारित्र भी सम्यक् नहीं होता।
अहिंसा अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है। उसी के आधार पर सब क्रियाएं फलवती बनती हैं। सभी धार्मिकों ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। जिसने अहिंसा का परिज्ञान नहीं किया, उसने कुछ भी नहीं जाना है। ज्ञानी का सार यही है कि किसी की भी हिंसा न करे। दूसरों की हिंसा अपनी हिंसा है। उसके कंठस्थ किये हुए करोड़ों पद्य भूसे के समान निस्सार हैं, जो इतना भी नहीं जानता कि दूसरों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। स्मृति भी कहती है--किसी की हिंसा मत करो। ईसा कहते हैं---"धन्य हैं वे जो दयालु हैं क्योंकि वे ईश्वर की दया प्राप्त करेंगे।"
कुरान शरीफ में लिखा है-"क्या इन्सान, क्या हैवान-सबके साथ रहम का व्यवहार करो।" इस प्रकार अहिंसा सभी का मूल मंत्र रहा है।
अहिंसा क्या है ?
अहिंसा का शब्दार्थ है--हिंसा का निषेध। यह उसका निषेधरूप है।' उसका विधिरूप है-प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग, द्वेष और मोह आदि का अभाव । राग-द्वेष हिंसा है, भले वह सूक्ष्म या स्थूल रूप में हो। अहिंसा वहां निखार नहीं पाती। अहिंसा की भूमिका को ओजस्वी बनाने के लिए आत्मा को पवित्र बनाना होता है । अपनी पवित्रता में अहिंसा सहज जगमगा उठती है। वहां सर्वत्र अपना ही दर्शन होता है। अहिंसक जैसे अपने को जानता है वैसे ही सबको जानता है। भगवान् ने इसलिए कहा-'सब प्राणी दुःख से घबराते हैं अतः सभी अहिंस्य हैं।'
धर्म-मोक्ष की आधार-शिला अहिंसा है। अहिंसा धर्म का पहला लक्षण है भौर तितिक्षा दूसरा।
अहिंसा और तितिक्षा धर्म को अपूर्ण नहीं रहने देते। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । अहिंसा के अभाव में तितिक्षा -सहनशीलत नहीं होती। और तितिक्षा के अभाव में अहिंसा नहीं होती। अधीरता हिंसा-प्रतिकार को जन्म देती है।
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