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पश्यत्ता
अस्त्यात्मा चेतनारूपो, भिन्नः पौद्गलिकैगुणैः।
स्वतन्त्रः करणे भोगे, परतन्त्रश्च कर्मणाम् ॥१॥ १. आत्मा का स्वरूप चेतना है। वह पौद्गलिक गुणों से भिन्न है। वह कर्म करने में स्वतन्त्र और उसका फल भोगने में परतन्त्र है।
आत्मा और पुद्गल (Matter) दोनों भिन्न हैं। दोनों में कुछ सामान्य गुणों का एकत्व होते हुए भी चेतन का स्व-बोध, ज्ञान-गुण उससे सर्वथा भिन्न है । पुद्गल में अपना कोई बोध नहीं है । वह जड़ है। निर्जीव और सजीव के बीच एक भेद-रेखा विज्ञान भी स्पष्ट देखने लगा है। शरीर से निकलने वाला वलय चेतना का ही विशेष गुण-धर्म है। प्राणी की प्राणशक्ति क्षीण होने पर आभा-वलय भी क्षीण होता हुआ देखा गया है। इससे दोनों की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है। 'जड़ और चेतन की भिन्नता के द्योतक और भी कुछ लक्षण हैं।
'अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य'-आत्मा ही सुख और दुःख की कर्ता और विकर्ता है । यह वाक्य आत्म-स्वातंत्र्य का पूर्ण परिचायक है। यदि परतन्त्र हो तो फिर उसके वश में कुछ नहीं होगा, फिर वह दूसरों के हाथ की कठपुतली होगी। मुक्ति या निर्वाण की बात कोई तथ्य-संगत नहीं होगी। सुख-दुःख के निर्माण में उसे पूर्ण स्वतंत्रता है। परतन्त्रता है तो सिर्फ इतनी ही कि कर्म का भोग न चाहने पर भी उसे भोगना पड़ता है, क्योंकि स्वयं उसने तथानुरूप कर्मों का संग्रह किया है। यह भी स्पष्ट है कि चेतन आत्मा अचेतन कर्म का संग्रह कैसे करे ? कर्म ही कर्म को आकृष्ट करता है। संस्कार संस्कार के लिए द्वार खुला रखता है। उसी मार्ग से वे आते हैं और आत्मा को बांधते हैं । वे जब आत्मा से अलग होते हैं तब स्व-बोध के कारण आत्मा रागात्मक, द्वेषात्मक और मोहात्मक रूप में परिणत नहीं होती। जिस दिन अज्ञान का आवरण मन्द, मन्दतर और मन्दतम हो जाता है, उसी दिन स्वबोध, आवरण क्षय और दुःख क्षय के लिए वह सहज हो जाता है।
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