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अध्याय ८ : १६७
२३. सब प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध को 'अयोग' कहता हूं। अयोग अवस्था को प्राप्त योगी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं ।
पूर्वं भवति सम्यक्त्वं, अप्रमादोऽकषायश्चाऽयोगो
विरतिर्जायते ततः । मुक्तिस्ततो ध्रुवम् ॥ २४ ॥
२४. पहले सम्यक्त्व होता है, फिर विरति होती है । उसके 'पश्चात् क्रमशः अप्रमाद, अकषाय और अयोग होता है । अयोगावस्था प्राप्त होते ही आत्मा की मुक्ति हो जाती है ।
अमनोज्ञसमुत्पादं समुत्पादमजानाना,
२५. जीवों के लिए अमनोज्ञ परिस्थिति उत्पन्न होने का जो हेतु है वह दुःख है । जो इस समुत्पाद ( दुःखोत्पत्ति) के हेतु को नहीं जानते, वे संवर (दु:ख निरोध) के हेतु को भी नहीं जानते ।
दुःखं भवति देहिनाम् ।
न हि जानन्ति संवरम् ॥ २५ ॥
रागो द्वेषश्च तद्धेतुर्वीतरागदशा रत्नत्रयी च तद्ध तुरेष
सुखम् ।
योगः
समासतः ॥२६॥
२६. दु:ख के हेतु राग और द्वेष हैं । वीतराग दशा सुख है। और उसका हेतु हे रत्नत्रयी – सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । योग का यह मैंने संक्षिप्त निरूपण किया है ।
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भगवान् महावीर ने कहा — जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है । यह संसार ही दुःख है, जहां प्राणी क्लेशों को प्राप्त होते हैं । जरा, रोग, मृत्यु और अप्रिय वस्तुओं का संयोग दुःख है । व्यक्ति दुःखों के कारणों को जान लेने पर ही दुःख-मुक्ति की ओर अग्रसर होता है । दुःख मुक्ति का उपाय है - संवर ( निवृत्ति ) । अफर्म के बिना दुःख का निरोध नहीं होता । दुःखोत्पन्न करने वाली मूल प्रवृत्तियां हैं - रागात्मक और द्वेषात्मक । इनका न होना सुख है । सुख की प्राप्ति के लिए रत्नत्रयी (तीन रत्न) का आलम्बन अपेक्षित है । सम्यग् - दर्शन, सम्यग् - ज्ञान, और सम्यग् चारित्र - यह रत्नत्रयी है । तीनों आत्मा के 'गुण हैं और आत्मा के निकटतम सहचारी हैं । आत्मा का निश्चय सम्यग् दर्शन, आत्मा का बोध सम्यग् ज्ञान और आत्म-स्थिरता सम्यग् चारित्र है ।
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