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अध्याय ११ : २३१
'जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। जीव अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है।' यह एकत्व भावना का चिन्तन है। इसके अभ्यास से व्यक्ति में निःसंगता पैदा होती है और अपने-आप पर निर्भर रहने की वृत्ति पनपती है। प्रत्येकबुद्ध नमि मिथिला के राजा थे। एक बार वे दाहज्वर से पीड़ित हुए। उपचार चला। रानियां स्वयं चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहने हुए कंगन बज रहे थे। उस आवाज से नमि खिन्न हो गए। कंगन उतार दिए गए। केवल एक-एक कंगन रखा।
आवाज़ बन्द हो गई। नमि ने कारण पूछा। मंत्री ने कहा-'सभी कंगन उतार दिये गये हैं। केवल एक-एक कंगन रखा गया है । एक में आवाज़ नहीं होती।'नमि ने सोचा-'सुख अकेलेपन में है। जहां दो हैं वहां दुःख है।' इस एकत्वभावना से प्रबुद्ध होकर वे प्रवजित हो गये।
न प्रियं कुरुते कस्याप्यप्रियं कुरुते न यः।
सर्वत्र समतामेति, समाधिस्तस्य जायते ॥३५॥ ३५. जो किसी का प्रिय भी नहीं करता और अप्रिय भी नहीं करता, सब जगह समता का सेवन करता है, वह समाधि को प्राप्त होता है।
इस श्लोक में आत्मनिष्ठ व्यक्ति के कर्तव्य का निर्देश है। उसमें राग-द्वेष नहीं होता । उसके लिए 'मेरा' और 'पराया' कुछ नहीं होता। वह प्रवृत्ति करता है, किसी का इष्ट या अनिष्ट करने के लिए नहीं, किन्तु अपना कर्तव्य-पालन करने के लिए। उसमें किसी का इष्ट सध सकता है। इष्ट या अनिष्ट प्रवृत्ति का मूल राग-द्वेष है। जो व्यक्ति इनसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है, वह सदा पवित्र नहीं रह सकता। जो आत्मनिष्ठ होता है, उसके लिए सब समान हैं। वह सारी प्रवृत्तियां आत्म-साक्षात् करने के लिए करता है। यही उसकी आत्म-निष्ठा है। यह सामान्य अवस्था नहीं है। यह ऊंची साधना से प्राप्त होती है। अप्रिय करने की बात हरेक की समझ में आ जाती है, किंतु प्रिय न करना-यह कुछ अमानवीय तथ्य-सा लगता है, किन्तु भूमिका-भेद से यह भी मान्य होता है। सभी व्यक्तियों के कर्त्तव्य अपनी-अपनी भूमिका से उत्पन्न हैं। अतः उस ऊंची भूमिका पर पहुंचे मनुष्य के कर्तव्य भी भिन्न हो जाते हैं । यह समता का परम विकास है।
अशंकितानि शङ्कन्ते, शङ्कितेषु ह्यशङ्किताः। असंवृता विमुह्यन्ति, मूढा यान्ति चलं मनः ॥३६॥
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