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अध्याय २ : ४५
अतः उनकी शिक्षा में बाह्य निमित्तों का भी पूरा-पूरा महत्त्व है। साम्यवादी देशों में अमुक-अमुक व्यवस्थाओं के कारण समाज की रचना एक भिन्न प्रकार से होती है । यहां उसकी रचना का कारण कर्म - जन्य नहीं हो सकता । वह व्यवस्था जन्य है।
धन की प्राप्ति किसी कर्म से होती है, ऐसा नहीं है । सम्मान, असम्मान की अनुभूति कर्म से हो सकती है और उसमें धन का भाव और अभाव भी निमित्त बन सकता है ।
हम चिलचिलाती धूप में चलते हैं । दुःख का अनुभव होता है । चलते-चलते मार्ग में वृक्ष की छांह में बैठ जाते हैं । वहां सुख का अनुभव होता है। दुःख का अनुभव होना असातावेदनीय का कार्य है और सुख का अनुभव होना सात वेदनीय का । किन्तु चिलचिलाती धूप या छांह की प्राप्ति किसी कर्म से नहीं होती ।
फलित यह है कि आत्मा की आन्तरिक योग्यता के तारतम्य का कारण कर्म है। कर्म के संयोग से आन्तरिक योग्यता आवृत या विकृत होती है । बाह्य व्यवस्थाएं या परिस्थितियां कर्म के उदय में निमित्त बन सकती हैं किन्तु वे आत्मा पर सीधा प्रभाव नहीं डाल सकतीं । कर्मों का परिपाक और उदय अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी; सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी । द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि, पौरुष आदि उदयानुकूल सामग्री को पाकर कर्म अपना फल देता है । इसीलिए कर्मफल की प्राप्ति में इतनी विविधताएं देखी जाती हैं ।
प्रस्तुत श्लोकों में ये प्रश्न उपस्थित किए गए हैं कि
१. धार्मिक दुःखी देखा जाता है और अधार्मिक सुखी ।
२. धार्मिक दरिद्र देखा जाता है और अधार्मिक धनवान् ।
इनका कारण कर्म है या और कोई ? इन प्रश्नों के समाधान में बताया गया है कि धर्म आत्म- गुणों का पोषक है और अधर्म उनका विघातक । उनसे सुख-दुःख की अनुभूति देनेवाले पदार्थों की प्राप्ति नहीं होती। इनकी प्राप्ति में द्रव्य, क्षेत्र आदि की अनुकूलता अपेक्षित होती है । दारिद्र्य और धनाढ्यता का धर्म से कोई संबंध नहीं है । एक अत्यन्त दरिद्र रहते हुए भी महान् धार्मिक हो सकता है और एक धनाढ्य होकर भी महान् अधार्मिक हो सकता है। धन के अर्जन में धर्म की तरतमता काम नहीं करती। उसके अर्जन में बुद्धि, कौशल, काल, अवसर आदि प्रमुख रहते हैं ।
धर्म के फल ये हैं- ज्ञान का अनावरण, दर्शन का अनावरण, सहज आनन्द की प्राप्ति, अपराजित शक्ति की प्राप्ति, शांति, धृति, संतुलन, क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति ।
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