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अध्याय ५ : १०७.
मोह से विषयो में आकर्षण होता है । आकर्षण अविरक्ति है। मोह और अवैराग्य में शब्द-भेद है। अवैराग्य या मोह का क्रम हमें फिर से मोह में जकड़ लेता है । मोह का एक चक्रव्यूह है। पहले मोह से इन्द्रियों के विषय का ग्रहण होता है, उससे इन्द्रियां अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं, मन चपल होता है और उससे अनेक संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं। इनसे इच्छा तीव्र होती है और फिर विषय का आसेवन प्रबल होता है। बार-बार या निरंतर विषयों के आसेवन से वासना दृढ़ होती जाती है और इससे मोह तीव्र होता जाता है। व्यक्ति मोह से प्रवृत्त होता है और मोह की सघन अवस्था को पैदा कर पुनः उसी चक्र में फंसता जाता है । धीरे-धीरे मोह अत्यन्त सघन होता जाता है और अन्त में व्यक्ति को इतना मूढ़ बना देता है कि वह उसी में आनन्द मानने लग जाता है । गीता में कहा गया है :
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्सञ्जायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ -विषयों के चिन्तन से आसक्ति, आसक्ति से कामवासना, कामवासना से क्रोध, क्रोध से संमोह (अविवेक), संमोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश होता है।
अवैराग्यञ्च सर्वेषां, भोगानां मूलमिष्यते ।
वैराग्यं नाम सर्वेषां, योगानां मूलमिष्यते ॥२७॥ २७. सब भोगों का मूल अवैराग्य है और सब योगों का मूल है वैराग्य ।
विरक्ति के बिना त्याग का केवल शाब्दिक आरोपण किया जाता है। वह त्याग आत्मा को विशुद्ध नहीं बनाता। उसमें आसक्ति बनी रहती है। स्वाधीन भोगों का जो विसर्जन है, वही वस्तुतः सच्चा त्याग है। वहां व्यक्ति का आकर्षण समाप्त हो जाता है। भोगों के प्रति जो सहज अनाकर्षण है, वही वैराग्य है । समाधि का अधिकारी विरक्त व्यक्ति है। इसीलिए इसे योग का मूल कहा है।
भोग बन्धन है और योग मुक्ति । बन्धन अवैराग्य है । इससे आत्मा का संपर्कः साधा नहीं जाता । यह योग का सर्वथा विपक्षी है।।
विषयाणां परित्यागो, वैराग्येणाशु जायते। अग्रहश्च भवेत्तस्मादिन्द्रियाणां शमस्ततः ॥२८॥
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