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१८८ : सम्बोधि
क्रिया के साथ आपको अपनी स्मृति रहे । जैसे—मैं चल रहा हूं, बैठ रहा हूं, बोल रहा हूं, लेट रहा हूं, भोजन कर रहा हूं, विचार कर रहा हूं आदि-आदि। स्वयं की स्मति सतत उजागर रहने से क्रिया में होने वाला प्रमाद स्वतः शान्त होता चला जाएगा। साधक को आचार के प्रति इतना सचेतन होने की आवश्यकता नहीं है जितना कि स्व-स्मरण के प्रति है। कबीर ने कहा है-यह शरीर रूपी चादर सबको मिली है, किन्तु प्रायः सभी मैली कर देते हैं। वे यतना [जतन नहीं रखते "दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।" मैंने उस चादर को बड़ी सावधानी से धारण किया अतः वैसी की वैसी छोड़ रहा हूं। यह कठिन है इसलिए कि सावधानी नही है। सावधानी साधना के क्षेत्र में प्रवेश का प्रथम चरण हैं । पाप कर्म का प्रवेश जागरूकता में संभव नहीं है।
मेघः प्राह
त्यक्तव्यो नाम देहोऽयं, पुरा पश्चाद् यदा कदा।
तत् किमयं हि भुजीत, साधको ब्रूहि मे प्रभो ॥५॥ ५. मेघ बोला—प्रभो ! पहले या पीछे जब कभी एक दिन इस शरीर को छोड़ना है तो फिर साधक किस लिए खाए ? मुझे बताइये।
भगवान् प्राह
बाह्यादूवं समादाय, नावकाक्षेत् कदाचन ।
पूर्वकर्मविनाशार्थमिम, देहं समुद्धरेत् ॥६॥ ६. संसार से बहिर्भूत अर्थात् मोक्ष का लक्ष्य बनाकर मुनि कभी भी विषयों की अभिलाषा न करे, केवल पूर्व-कर्मों का क्षय करने के लिए इस देह को धारण करे। ___ संसार और मोक्ष ये दो तत्त्व हैं। दोनों दो दिशाओं के प्रतिनिधि हैं । मोक्ष को अभीसिप्त है आत्म-सुख और संसार को अभीसिप्त है दैहिक सुख । मनुष्य जब दैहिक सुख से तृप्त हो जाता है तब वह आत्मिक सुख की ओर दौड़ता है। फिर वह संसार में नहीं रहता। शरीर आत्मिक सुख के सामने नगण्य है, लेकिन जो व्यक्ति उसे ही देखता है वह मोक्ष से दूर चला जाता है। मोक्षार्थी का लक्ष्य होता है आत्मिक सुख का आविर्भाव करना। वह दैहिक सुख से निवृत्त होता है और
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